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योगसार प्रवचन ( भाग - २ )
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भगवान संन्यास कहते हैं । वह चौथे गुणस्थान से अविरति सम्यग्दृष्टि को संन्यास का प्रारम्भ हो जाता है। समझ में आया ? और जिसके घर में छयानवें हजार स्त्री, छियानवें हजार स्त्री, छियानवें करोड़ सैनिक और हीरे के सिंहासन, बड़े - बड़े गहने, मुकुट - एक - एक मुकुट के अरबों रुपये ! अन्दर में इन सबका स्वामी नहीं है। पुद्गल का स्वामी नहीं है, शरीर का स्वामी नहीं है, वाणी का स्वामी नहीं है, राग का स्वामी नहीं है; अन्तर में शुभ-अशुभराग होता है, उसका भी स्वामी नहीं है, वह संन्यासी है - ऐसा दृष्टि अपेक्षा से है । दृष्टि की अपेक्षा से; स्थिरता की अपेक्षा से मुनि संन्यासी है। अव्रत के परिणाम का त्याग करके अन्दर में स्थिर हुए, उस स्थिरता की अपेक्षा से । समझ में आया ? उस संन्यास का प्रारम्भ सम्यग्दृष्टि अविरति को हो जाता है ।
सम्यग्दृष्टि भलीभाँति जानता है कि मेरा स्वामीपना... देखो ! आया, देखो... मेरे आत्मा पर ही है। सम्यग्दृष्टि जीव चौथे गुणस्थान में हो, अव्रतीभाव भी हो, तथापि ऐसा मानता है कि मेरा स्वामीपना मेरे एक आत्मा से है। स्वस्वामी सम्बन्ध (ऐसा ) अपना
आत्मा में है । स्वस्वामी सम्बन्ध । स्व (अर्थात् ) अपनी शुद्धता, उसका मैं स्वामी । चैतन्य सहजात्मस्वरूप का मैं स्वामी । दया, दान, व्रत का विकल्प उठता है, उसका भी मैं स्वामी नहीं हूँ। समझ में आया ? शुभाशुभ परिणाम का स्वामित्व, वह मिथ्यादर्शन है। है ? शुभाशुभ परिणाम बन्ध का ही कारण है । सम्यग्दृष्टि का हो या मिथ्यादृष्टि का हो, शुभाशुभ परिणाम बन्ध का ही कारण है। उनका स्वामीपना मिथ्यादर्शन है । सम्यग्दृष्टि उनका स्वामी नहीं है, उसमें आया न ?
मेरे आत्मा का अभेदरूप द्रव्यत्व मेरा द्रव्य है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव कहते हैं। मेरा आत्मा एक स्वरूप से द्रव्य-वस्तु है, वह मेरा द्रव्य है । लक्ष्मी वक्ष्मी वह मेरा द्रव्य नहीं है। मेरे आत्मा का असंख्यात प्रदेश क्षेत्र मेरा क्षेत्र है । यह शरीर का क्षेत्र और बाहर के मकान का क्षेत्र, राग का क्षेत्र मेरा नहीं है। मेरे आत्मा के गुणों का समय-समय का परिणमन वह मेरा काल है... तुम्हारे अभी काल बहुत अच्छा है, हाँ ! पुत्र, पैसा वह मेरा काल नहीं है। मेरे आत्मगुण की वर्तमान परिणति - पर्याय, वह मेरा काल है। समझ में आया ? मेरे आत्मा के शुद्ध गुण मेरा भाव है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव लिये हैं । आत्मा