________________
११६
गाथा - ८२
उसे ही संन्यास अथवा त्याग जान। देखो, समझ में आया ? ऐसा केवलज्ञानी ने कहा है । देखो, केवल - णाणी उत्तु है न! केवल - णाणी उत्तु सर्वज्ञ परमेश्वर ऐसा कहते हैं कि अपना आत्मा वीतरागस्वरूप आत्मा है और दया, दानादि विकल्प राग हैं दो का ज्ञान करके राग को छोड़कर स्वरूप में स्थिर होना, उसका नाम त्याग, संन्यास केवलज्ञानी कहते हैं । अन्तरङ्ग में परभावों के ममत्व के त्याग को संन्यास कहते हैं । संन्यास की व्याख्या ।
-
मुमुक्षु : संन्यास आश्रम....
उत्तर : यह आश्रम है, बाहर का आश्रम कब था ? गृहस्थाश्रम, ब्रह्मचर्याश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, और संन्यास। ऐसे चार आश्रम हैं न ? वे सब खोटे हैं। यह भगवान कहते हैं, वह आश्रम सच्चा है ।
अन्तरङ्ग में परभावों का... पुण्य-पाप के विकल्प जो परभाव हैं, उनके ममत्व का त्याग, उसका नाम भगवान संन्यास कहते हैं । बाहर का त्याग नहीं। बाह्य पदार्थ तो कहाँ अन्दर में घुस गया है। शुभ और अशुभराग, पुण्य-पाप के भाव दोनों राग का त्याग, उसे भगवान संन्यास कहते हैं । बाह्य परिग्रह का त्याग अन्तरङ्ग त्यागभाव का निमित्त ( साधन है ) । निमित्त है । निमित्त साधन, व्यवहार कहा जाता है ।
-
इस संन्यास का प्रारम्भ सम्यग्दृष्टि अविरति को हो जाता है । यह आया । बन्ध अधिकार में कहा 'या नहीं ? जयसेनाचार्यदेव कहते हैं, अन्तरङ्ग सेतो चौथे गुणस्थानवाला अबन्ध परिणामी है। अबन्ध है, ऐसा कहा है – लिखा है । अपना निजशुद्धात्मा अनन्त-अनन्त एक-एक गुण की ताकत और ऐसे अनन्त गुण ताकत सम्पन्न प्रभु, उसका अन्तर में अनुभव – निर्विकल्प अनुभव में प्रतीति होना, (वह सम्यग्दर्शन है) । राग का तो उसमें – दृष्टि में त्याग ही है। जिस भाव से तीर्थङ्कर (नामकर्म) बँधता है, उस भाव का भी दृष्टि में तो त्याग है। सम्यग्दृष्टि को तो चौथे गुणस्थान से राग का तो त्याग है, स्वभाव का ग्रहण है । आहा... हा...!
अपना स्वभाव एक समय में राग से भिन्न पूर्णानन्द प्रभु है । यह राग का उदयभाव जो संसार है, उसका त्याग और अपने शुद्धस्वभाव का ग्रहण, उसमें लीनता (होना), उसे