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योगसार प्रवचन (भाग-२)
जो जाने निज आत्म को, पर त्यागे निर्धान्त।
यही सत्य संन्यास है, भाषे श्री जिन नाथ॥ अन्वयार्थ - (जो अप्परु परयाणइ) जो आत्मा व पर को पहचान लेता है (सो णिभंतु परु ) वह बिना किसी भ्रान्ति के पर को त्याग देता है (तुहुँ सो सण्णासु मुणेहि) तू उसे ही संन्यास या त्याग जान (केवलणाणि उत्त) ऐसा केवलज्ञानी ने कहा है।
८२, परभावों का त्याग ही संन्यास है। अब संन्यास आया, संन्यास!
जो परयाणइ अप्प परू चयइ णिभंतु।
सो सण्णासु मणेहि तुहुँ केवलणाणिं उत्तु॥८२॥
जो आत्मा (स्व और) पर को पहचान लेता है... अप्प परु अपने आनन्द शुद्धस्वरूप को जानता है, पर – पुण्य-पाप के विकल्प वे पर और शरीरादि पर दोनों को जो पहचान लेता है, वह कुछ भी भ्रान्ति बिना पर को छोड़ देता है। परु चयइ है न? अपने शुद्ध स्वभाव का ज्ञान करके और रागादि पर भिन्न है – ऐसा ज्ञान करके, रागादि को छोड़कर स्वरूप में रहता है, स्थिर रहता है, उसे यहाँ संन्यासी कहा गया है, त्यागी कहा गया है। संन्यासी आया, संन्यासी, जैन का संन्यासी।
मुमुक्षु : जैन में ही संन्यासी होता है, अन्यत्र कहाँ होता है ?
समाधान : अन्यत्र कहाँ होता है ? दूसरे में खोटा संन्यासी है। जैन सिवाय, जैन परमेश्वर सिवाय कोई सच्चा संन्यासी तीन काल में नहीं होता।
यहाँ कहते हैं, न नहीं। वस्त्र संन्यास नहीं, राग भी नहीं; राग का त्याग (वह संन्यास है) यह राग है, यह वीतरागस्वरूप है, आत्मा वीतरागस्वरूप है, यह राग है – ऐसा दोनों का ज्ञान करके यहाँ आत्मा में स्थिर होना और राग को छोड़ना, उसका नाम संन्यास है। लो, यह संन्यासी! ऐसा आधा कपड़ा पहनकर निकलते थे न पहले? यह मन्दिरवासी साधु पहनते हैं ऐसा, आधा पहनते थे। पहले ऐसा वेष बनाया था, संवत् १९९९ में।