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योगसार प्रवचन (भाग - २)
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राग में, शरीर में, कर्म में, पर में अपना कोई गुण और अपनी दशा पर में नहीं है। समझ में आया ?
मैं इन्द्रियसुख को सुख जानता हूँ । आहा... हा...! चक्रवर्ती राजा हो, छियानवें हजार स्त्री हों... समझ में आया ? परन्तु पर में सुखबुद्धि नहीं है। उनमें सुख है - ऐसी बुद्धि नहीं है, तब सम्यग्दर्शन है। उनमें सुख है (ऐसा माने तो ) उनमें सुख नहीं है और सुख बुद्धि मानता है वह तो मिथ्यादृष्टि है । आहा... हा... ! कहो, बल्लभदासभाई ! दिखता है, विषय में-भोग में दिखता है परन्तु अन्तर में सम्यग्दृष्टि जीव की दृष्टि में आत्मा में अतीन्द्रिय सुख मुझमें ही है ( - ऐसा है) उस दृष्टि में पुरुषार्थ की कितनी जागृति है ! मुझ आत्मा में आनन्द है, इन्द्रियसुख को मैं सुख मानता ही नहीं, वह तो दुःख है, जहर है, उपसर्ग है । आहा... हा... ! समझ में आया ?
मैं अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख को सच्चा ज्ञान और सुख जानता हूँ । देखो! सम्यग्दृष्टि जीव अपने आत्मा का अतीन्द्रियज्ञान है, उस अतीन्द्रिय ज्ञान को ज्ञान जानता है। शास्त्रज्ञान, लौकिक ज्ञान को सम्यग्दृष्टि धर्मी ज्ञान नहीं जानता । समझ में आया ? और न सुख जानता हूँ । समझ में आया ? अतीन्द्रियसुख को ही सच्चा ज्ञान और सुख जानता हूँ। आत्मा में मन से पार, राग से अतीत-भिन्न भगवान आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द है। सम्यग्दृष्टि धर्मी ' मुझमें आनन्द है - ऐसा मानता है ।' आहा... हा... ! (यह) भेदज्ञान है। इन्द्रियसुख को सुख नहीं जानता, अतीन्द्रियसुख को सुख ( जानता है ) । इन्द्रियज्ञान तो ज्ञान नहीं (जानता ), अतीन्द्रियज्ञान को ज्ञान ( जानता है ) । परवस्तु से पृथक्, मेरे ज्ञानस्वभाव से मैं अपृथक् / अभेद हूँ । समझ में आया ?
इसीलिए मेरा धन मेरे पास है । लो ! यह लक्ष्मी के पीछे दौड़ते हैं न ? धर्मी अपना धन अपने में देखता है, उसके पास दौड़ता है। दौड़ता है, कहते है न ? समझ में आया ? गृहस्थाश्रम में हो, पुरुष हो, स्त्री हो, या आठ वर्ष की सम्यग्दृष्टि बालिका हो परन्तु अपने आत्मा में आनन्द है, उसे लेने के लिये अन्दर दौड़ते हैं । कदाचित् विवाह भी हो जाये, बड़ी होवे तो विवाह भी करे, (परन्तु जानती है कि ) नहीं, उसमें आनन्द नहीं है । आनन्द लेने के लिए मैं विवाह नहीं करती; मुझमें ऐसा राग है, वह दूर नहीं होता; मेरी कमजोरी से वह