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गाथा-८०
व्यर्थ ही किसलिए जड़ की क्रिया को अपनी मान रहा है ? जैसे सांप काटे किसी को और विष किसी दूसरे को चढ़े तो अचरज मानते हैं। (वैसे ही) जड़ खाये, पीये, स्नान, तेल मर्दनादि क्रिया करे, (वहाँ) तू कहे कि 'मैंने खाया, मैंने भोग लिया'(इस प्रकार) पर का स्वामी हुआ।सो परका स्वामी भी ऐसा तो नहीं मानता। जैसे राजा दासों का स्वामी है। (तथापि ) उनके तृप्त होने से (पाठान्तर - नौकर के भोजन से तृप्त होने से ) राजा ऐसा नहीं कहता कि 'मैं तृप्त हुआ हूँ।'
और तू देख, तेरी ऐसी चाल तुझे ही दुःखदायी है। आहा...हा... ! कहो यह शरीर, वाणी, मन तो जड़ है। उनका चलना, हिलना क्रिया तो जड़ का खेल है, तेरा है ?
मुमुक्षु : दान तो देना या नहीं?
उत्तर : कौन दान दे सकता है ? दान का भाव अपने में होता है। राग की मन्दता, पुण्य (होता है)। लक्ष्मी जाना, आना तो अपने अधिकार की बात है? भाव होता है कि इतनी लक्ष्मी दान में खर्च करूँ, वह भाव शुभभाव है, वह पुण्य है परन्तु पुण्यभाव हुआ तो लक्ष्मी जाती है – ऐसा भी नहीं है और लक्ष्मी जाना है तो शुभभाव हुआ है – ऐसा भी नहीं है और शुभभाव हुआ तो धर्म हुआ है – ऐसा भी नहीं है। अद्भुत बात, भाई ! समझ में आया? 'अनुभवप्रकाश' है, भाई! देखा है कभी? दीपचन्दजी का है। दीपचन्दजी साधर्मी, कासलीवाल' है बहुत सरस! और सादी भाषा। हिन्दी-प्रचलित भाषा में लिखा है। व्याख्यान हो गया है।
मुमुक्षु : दो दिन न खाये वहाँ जीव कमजोर पड़ जाता है?
उत्तर : जीव कमजोर पड़ता है या शरीर? दो दिन खाने को न मिले तो जीव कमजोर हो जाता है – ऐसा कहते हैं, सेठ! दो दिन न खाये तो शरीर कमजोर या आत्मा? कौन कमजोर पड़ता है ? महामुनि तो छह-छह महीने के उपवास करते हैं और ऐसी तपस्या की लब्धि होती है कि शरीर ऐसा का ऐसा रहता है। छह-छह महीने के उपवास करें और शरीर ऐसा का ऐसा, सुन्दर... सुन्दर... सुन्दर... उसमें क्या है ? समझ में आया?
__यहाँ पर तो कहते हैं, निरन्तर स्वात्मानन्द का लाभ करना, वही अनन्त लाभ है। यह राग होना वह तेरा लाभ नहीं है, पुण्यभाव हुआ वह भी तेरा लाभ नहीं है। पर की