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योगसार प्रवचन (भाग-२)
सो कहते हैं - दश प्रकार का परिग्रह - क्षेत्र, बाग, नगर, कूप, बावड़ी, तालाब, नदी आदि सब पुद्गल; माता-पिता, कलत्र, पुत्र-पुत्री, वधू-बन्धु, स्वजन आदि सर्व ( कुटुम्बीजन); सर्प, सिंह, व्याघ्र, गज, महिष आदि सब दुष्ट; अक्षर, अनक्षर शब्दादि, गाना-बजाना, स्नान, भोग, संयोग-वियोग की सब क्रिया, परिग्रह का मिलाप सो बड़ा, परिग्रह का नाश तो दरिद्रादि सब क्रिया; चलना-बैठना, हिलना-बोलना, कंपना आदि क्रिया, लड़ना-भिड़ना, चढ़नाउतरना, कूदना-नाचना, खेलना, गाना-बजाना आदि जितनी क्रियायें सब पुद्गल का खेल जानो। भाई! यह तुम्हारी हिन्दी में है। तख्तमलजी! यह तुम्हारी हिन्दी में लिया। आहाहा... ! पुद्गल का खेल / क्रिया है, तो यह मानता है कि मुझसे हुई। मूढ़ है, तेरी दृष्टि में ही अन्तर है। आहा...हा...!
नर, नारक, तिर्यञ्च, देव, उनका वैभव, भोगकरण, विषयरूप इन्द्रियों की क्रिया आदि सर्व पुद्गल का नाटक है। द्रव्यकर्म, नोकर्म आदि सर्व पुद्गल का अखाड़ा है, उसमें तू चिदानन्द रंजित होकर अपना जानता है। पर में अपनापन मानकर तू इस प्रकार दुःख प्राप्त कर रहा है कि जैसे मुर्दे को वस्त्राभूषण पहनाकर माने कि 'मैंने पहने हैं'।तू जीवन्त होने पर भी उनको झूठ ही अपना मान रहा है। मैंने पहना, यह तो जड़ की क्रिया है। समझे न? इस प्रकार शरीर जड़ है; उसके भोगों को तू अपने मानकर व्यर्थ ही किसलिए जड़ की क्रिया को अपनी मान रहा है? देह की क्रिया होती है तो कहता है कि मैंने भोग लिया। वह तो जड़ की क्रिया है, तूने कहाँ भोग लिया है? कितना स्पष्ट किया है ! भोग सके, जड़ को भोग सके – ऐसा कहीं आया है ?
मुमुक्षु : कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं ? उत्तर : क्या कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं ? तुम्हें पता नहीं है। मुमुक्षु : तन्मय नहीं होता?
उत्तर : तन्मय नहीं होता इसका अर्थ क्या हुआ? उसरूप हुए बिना उसका भोग कहाँ से आया? उसरूप हुए बिना उसका कर्ता कहाँ से हुआ?