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गाथा-८०
(पाठान्तर - नौकर के भोजन से तृप्त होने से राजा यह नहीं कहता कि मैं तृप्त हुआ हूँ)।फिर तू देख, तेरी ऐसी चाल तुझे ही दुःखदायक है। ऐसा विपरीत मानता है, तुझे दुःख होता है, देख! समझ में आया? 'अनुभवप्रकाश' 'चिद्विलास''आत्मावलोकन' बहुत सरस ! शास्त्र प्रमाण अन्तर दृष्टि से बहुत सरस लिखा है परन्तु अभी तो पढ़ने की निवृत्ति नहीं और दूसरे पढ़े तो शास्त्र की ऊपर दृष्टि से किस नय का कथन है, उसका पता नहीं। (अभी अज्ञानी ऐसा कहते हैं), सोनी आभूषण बना सकता है और आभूषण का फल खा सकता है। धूल भी नहीं खा सकता, सुन न ! दो जगह (बात) है। हमने तो पहले हिन्दी पढ़ा है न! हिन्दी भी व्याख्यान में पढ़ा है और गुजराती भी पढ़ा है।
मुमुक्षु : हिन्दी पर व्याख्यान हो गये हैं? उत्तर : हाँ, हाँ!
देखो, क्या (कहते हैं) अपना आनन्द अपने को देता है।... कहो, समझ में आया? 'अनुभवप्रकाश' में ३९ पृष्ठ और ६५ पृष्ठ है। आपके आनन्द को आपको देता है... भगवान आत्मा, अपने में अतीन्द्रिय आनन्द है अन्दर स्वभाव है। उसकी अन्तर एकाग्रता करके अतीन्द्रिय आनन्द प्रगट किया, वह स्वयं अपने को लिया। दूसरा कौन दे और कौन लेता है ? कहो, समझ में आया? इसका नाम दान है। अनन्त दान करनेवाला है।
निरन्तर स्वआत्मानन्द का लाभ करना, वह ही अनन्त लाभ है। निरन्तर स्वआत्मा का आनन्द (वह लाभ है) यह पैसे मिले तो लाभ हुआ, साठ वर्ष में पुत्र हुआ तो... ओ...हो... ! (करता है)। धूल भी नहीं, सुन न ! अपने स्वरूप में अतीन्द्रिय आनन्द है। विकार से हटकर निर्विकार आनन्द में लीन होकर अतीन्द्रिय आनन्द का लाभ अवस्था-दशा में होवे उसका नाम अनन्त लाभ कहा जाता है। लो, मलूकचन्दभाई! यह पैसे का लाभ, लाभ नहीं है – ऐसा कहते हैं । सत्य बात है ?
मुमुक्षु : यह तो अनुभवसिद्ध बात है?
उत्तर : क्या अनुभवसिद्ध है ? लड़के कुछ देते नहीं, ऐसा? कौन किसे दे? दो लड़के बड़े, तीन करोड़ रुपयेवाले, लो! यहाँ इतने छोटे बंगले में-मकान में रहना, लो! खोला है, वहाँ ६५ पृष्ठ निकला, यह निकला देखो! पहले जो पढ़ा वह ।