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________________ योगसार प्रवचन (भाग - २) लक्ष्मी मिली, स्त्री मिली, कुटुम्ब मिला, उसमें तुझे क्या लाभ हुआ ? धूल में। आहा...हा...! स्वात्मानन्द का ही निरन्तर भोग है । देखो, आत्मा आनन्दस्वरूप की दृष्टि करके आनन्द का अनुभव करना, उसका नाम भोग है। जड़ का भोग, शरीर का भोग, वह अपना है ? अपने आत्मा का ही बारम्बार उपभोग है। देखो ! बारम्बार आनन्द का अनुभव करना वह उपभोग है। परवस्तु को कौन भोगता है ? एक बार भोगने में आवे, वह भोग और बारम्बार भोगने में आवे, वह उपभोग – ऐसा कहते हैं न? परवस्तु को कौन (भोगे ) ? वह तो विकल्प की बात करते हैं । - १०९ गुणों के भीतर परिणमन करते हुए कभी भी खेद नहीं पाता, वही अनन्त वीर्य है। अनन्त वीर्य आत्मा में है। अपनी शक्ति का एकाकार परिणमन करने से जिसका बल कम नहीं होता परन्तु बल की वृद्धि होती है । कहो, समझ में आया? यह फिर तपस्या की बातें हैं, वे कुछ नहीं । कायक्लेश की बात है । निश्चय और व्यवहार प्रायश्चित कहा है । ठीक है । अभेदनय से एक अखण्ड आत्मा का ध्यान करना... अभेदनय से एक अखण्ड आत्मा का ध्यान करना... तो स्वानुभव की प्राप्ति होगी। यह लाभ हुआ । आत्मदर्शन है व यही सुख-शान्ति प्रदायक भाव है, वही आत्मसमाधि है, निश्चयरत्नत्रय की एकता है । मुमुक्षु जीव को निश्चिन्त होकर परमप्रेम से अपने आत्मा की ही आराधना करनी चाहिए। यह 'वृहद् सामायिक' में कहा है। अब ८१ (गाथा) अब आँकड़े गये, पहले आँकड़े थे न ? दो, चार (ऐसे ) । ✰✰✰ आत्मरमण में तप-त्यागादि सब कुछ हैं अप्पा दंसणु णाणु मुणि अप्पा चरणु वियाणि । अप्प संजम सील तउ अप्पा पच्चक्खाणि ॥ ८१ ॥ आत्मा दर्शन ज्ञान है, आत्मा चारित्र जान । आत्मा संयमशील तप, आत्मा प्रत्याख्यान ॥ अन्वयार्थ - ( अप्पा दंसणु णाणु मुणि) आत्मा को ही सम्यग्दर्शन और
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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