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आचरणप्रज्ञापनाधिकार
( गाथा २०१ से गाथा २३१ तक ) मंगलाचरण (दोहा)
अनागार आचरण से बनते श्रमण महान । प्रज्ञापन आचरण को सुनो भविक धरि ध्यान ।।
प्रवचनसार गाथा २०१
आचार्यदेव उत्थानिका की पहली ही पंक्ति में जो लिखते हैं; उसका भाव इसप्रकार है ह्र
“अब दूसरों को चारित्र के आचरण करने में युक्त करते हैं।" इसप्रकार हम देखते हैं कि परेषां और परान् शब्दों से यह व्यक्त होता है कि यह चरणानुयोगसूचकचूलिका दूसरों के लिए लिखी गई है।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा को आरंभ करने के पहले पंचपरमेष्ठी का स्मरण करनेवाली इस ग्रंथ के मंगलाचरण की पहली, दूसरी और तीसरी गाथा को उद्धृत करते हैं; जो इसप्रकार हैं ह्र
“एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं । पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥ | १ || सेसे पण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसब्भावे । समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे ||२|| ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं । वंदामि य वट्टते अरहंते माणुसे खेत्ते || ३ || ( हरिगीत )
सुर असुर इन्द्र नरेन्द्र वंदित कर्ममल निर्मलकरन । वृषतीर्थ के करतार श्री वर्द्धमान जिन शत-शत नमन || १ || अवशेष तीर्थंकर तथा सब सिद्धगण को कर नमन । मैं भक्तिपूर्वक नमूँ पंचाचारयुत सब श्रमणजन ||२||
गाथा २०१
उन सभी को युगपत तथा प्रत्येक को प्रत्येक को I मैं नमूँ विदमान मानस क्षेत्र के अरहंत को | | ३ ॥
जो सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों और नरेन्द्रों से वंदित हैं तथा जिन्होंने घातिकर्मरूपी मल को धो डाला है; ऐसे तीर्थरूप और धर्म के कर्ता श्री वर्द्धमान तीर्थंकर को नमस्कार करता हूँ। विशुद्ध सत्तावाले शेष तीर्थंकरों, सर्वसिद्धों और ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार से सहित सभी श्रमणों को नमस्कार करता हूँ।
उन सभी को और मनुष्यक्षेत्र अर्थात् ढाई द्वीप में सदा विद्यमान रहनेवाले अरहंतों को समुदायरूप से एकसाथ और व्यक्तिगतरूप से प्रत्येक को अलग-अलग वंदन करता हूँ।"
आरंभिक मंगलाचरण की इन गाथाओं की संगति २०१वीं गाथा के आरंभिक एवं शब्द से बिठाई गई है और कहा गया है कि इसप्रकार जिनवरवृषभरूप अरहंत परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी और श्रमणों अर्थात् आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठियों को नमस्कार करके आचार्यदेव कहते हैं कि यदि सांसारिक दुःखों से मुक्त होना चाहते हों तो श्रामण्य को धारण करो ।
गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्न
एवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे । पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं ।। २०१ ।।
( हरिगीत )
हे भव्यजन ! यदि भवदुखों से मुक्त होना चाहते।
परमेष्ठियों को कर नमन श्रामण्य को धारण करो ||२०१ || हे शिष्यगण ! यदि तुम दुःखों से छूटना चाहते हो तो पूर्वोक्त प्रकार से
सिद्धों को, जिनवरवृषभ आदि अरहंतों को तथा श्रमणों को बारम्बार नमस्कार करके श्रामण्य को अंगीकार करो ।
आचार्य अमृतचन्द्र ने इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया है ह्र