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प्रवचनसार अनुशीलन “जिसप्रकार दुखों से मुक्ति चाहनेवाले मेरे आत्मा ने किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं । अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसिं ॥ ४ ॥ तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज । उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ॥५॥ ( हरिगीत )
अरहंत सिद्धसमूह गणधरदेवयुत सब सूरिगण । अर सभी पाठक साधुगण इन सभी को करके नमन ॥४॥ परिशुद्ध दर्शनज्ञानयुत समभाव आश्रम प्राप्त कर । निर्वाणपद दातार समताभाव को धारण करूँ ||५|| ह्न इसप्रकार अरहंतों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं को प्रणाम - वंदनात्मक नमस्कार करके विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान साम्य नामक श्रामण्य को, जिस श्रामण्य की इस ग्रंथ में कहे गये ज्ञानतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन नामक दो अधिकारों की रचना द्वारा सुस्थिता हुई है, उस श्रामण्य को मैंने स्वीकार किया है; उसीप्रकार दूसरों के आत्मा भी, यदि दुःखों से मुक्त होना चाहते हैं तो उस श्रामण्य को अंगीकार करो ।
उस श्रामण्य को अंगीकार करने का यथानुभूत जो मार्ग है; उसके प्रणेता हम यहाँ खड़े हैं । "
टीका की अन्तिम पंक्ति को पढ़कर ऐसा लगता है कि जैसे किसी शिष्य ने आचार्यदेव से ऐसा प्रश्न किया हो कि ह्न आप जिस श्रामण्य को अंगीकार करने की बात कर रहे हो, क्या वह संभव है ? तन पर वस्त्र नहीं रखना, भोजन नहीं करना, भोजन करने में भी अपने हाथ से बनाने की तो बात ही नहीं; यदि कोई स्वयं के लिए बनाए तो उसमें से भी विधिपूर्वक लेना ह्न क्या यह सब संभव है ?
तब आचार्यदेव ने इस पंक्ति के रूप में उत्तर दिया हो कि इस मार्ग के प्रणेता हम खड़े हैं न? स्वयं को 'प्रणेता' कहकर आचार्यश्री शिष्यों को हिम्मत दे रहे हैं। हमें ये शब्द सुनकर ऐसा लग सकता है कि ये अभिमान १. ये गाथायें भी इसी ग्रन्थ के मंगलाचरण की गाथायें हैं।
गाथा २०१
से भरे शब्द हैं; किन्तु ये अभिमान से भरे हुए शब्द न होकर आत्मविश्वास से भरे हुए शब्द हैं अर्थात् शिष्यों में आत्मविश्वास भरनेवाले शब्द हैं।
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यह वह पंक्ति है, जिस पंक्ति को पढ़ने के बाद गुरुदेवश्री उछल पड़े थे । वे इन शब्दों पर इतने रीझ गये थे, इतने भावविह्वल हो गये मानो अमृतचन्द्राचार्य साक्षात् उनसे ही यह कह रहे हों कि तुम्हारें पीछे हम खड़े हैं न, क्यों चिन्ता करते हो ?
आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में भी इस गाथा के भाव को इसीप्रकार स्पष्ट किया गया है।
कविवर वृन्दावनदासजी भी तीन दोहों में इसी बात को दुहरा देते हैं। उक्त गाथा का भाव गुरुदेवश्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न "आचार्यदेव कहते हैं कि हे जीवों! यदि तुम्हें समस्त प्रकार के दुःख से रहित होना है तो पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करके बाह्य- आभ्यन्तर मुनिपना अंगीकार करो।' पंच परमेष्ठियों की काय और वचनों द्वारा स्तुति कर, उन्हें नमस्कार कर हमने मुनिपना अंगीकार किया है। वह मुनिपना विशुद्ध ज्ञान-दर्शन में प्रधान है, इससे यह निश्चित होता है कि आत्मा शरीरादि क्रिया से रहित पुण्य-पाप रूप नहीं है। शुद्ध ज्ञान और आनन्दस्वरूप है, उसके सम्यग्ज्ञान बिना मुनिपना कदापि नहीं हो सकता ।
तथा इस शास्त्र में समाये हुए ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन और ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन ह्न इन दो अधिकारों की रचना से हमारा मुनिपना और अधिक विशेष दृढ़ हुआ है। आत्मा का भान तो पूर्व में भी था; किन्तु अब अन्तर में पुण्यपाप के समस्त विकल्पों को भी नष्ट कर दिया है, जिससे स्वरूप रमणता विशेष बढ़ गई है और बाह्य में भी नग्नदशा वर्त रही है ह्र ऐसा मुनिपना हमने अंगीकार किया है।
सम्यग्ज्ञान और सम्यक् श्रद्धा बिना मात्र नग्नदशा धारण करना मुनिपना नहीं है; किन्तु यथार्थ भानपूर्वक अन्तरदशा के साथ बाह्य में शरीर की नग्नदशा भी सहज ही होती है। इसप्रकार यदि तुम्हें भी संसार के समस्त दुःखों से छूटना हो तो तुम भी आत्मा का सच्चा श्रद्धान- ज्ञान १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-७