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________________ कलश १३ प्रवचनसार अनुशीलन चरणानुयोग सूचक चूलिका की तत्त्वप्रदीपिका टीका लिखते हुए आ. अमृतचन्द्र जो प्रथम छन्द लिखते हैं, उसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र (इन्द्रव्रजा) द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धिः द्रव्यस्य सिद्धिश्चरणस्य सिद्धौ। बुद्ध्वेति कर्माविरता: परेऽपि द्रव्याविरुद्धं चरणं चरंतु ।।१३।। (दोहा) द्रव्यसिद्धि से चरण अर चरण सिद्धि से द्रव्य । यह लखकर सब आचरो द्रव्यों से अविरुद्ध||१३|| द्रव्य की सिद्धि में चरण की सिद्धि और चरण की सिद्धि में द्रव्य की सिद्धि होती है तू यह जानकर शुभाशुभभावरूप कर्मों से अविरत अन्य लोग भी द्रव्य से अविरुद्ध चारित्र का आचरण करो। इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्ददेव आगामी गाथाओं द्वारा शिष्यों को चारित्र के आचरण में युक्त करते हैं, लगाते हैं। उक्त छन्द का अर्थ करते हुए आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी लिखते हैंह "शरीर-मन-वाणी से भिन्न आत्मा परिणामी नित्य द्रव्य है। यदि आत्मा परिणमन न करे तो दुःख पलटकर अनुभव की प्राप्ति न हो और यदि आत्मा नित्य न हो तो दुःख को नाश करनेवाला और अनुभव करनेवाला पदार्थ नहीं रहेगा। अतः आत्मा नित्य परिणामी है।' आत्मा के लक्ष्यपूर्वक जितने वीतरागी परिणाम होते हैं, उतने परिमाण में द्रव्य की सिद्धि होती है। चरण की सिद्धि में द्रव्य की सिद्धि है। आत्मा ज्ञानानन्दस्वभावी शुद्ध है, ऐसे श्रद्धान-ज्ञानपूर्वक जो चरण हो, उससे आचरण की सिद्धि होती है। आत्मा के भानसहित राग को छोड़कर जितने परिमाण में वीतरागी परिणाम होते हैं, उतनी शांति होती है तथा उससे ही द्रव्य की सिद्धि होती है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-१ २. वही, पृष्ठ-३ यहाँ आचार्यदेव स्वयं से कहते हैं कि हम तो भावलिंगी संत हैं, हमने चारित्र अंगीकार किया है। हम तो स्वरूप में रमण करनेवाले हैं। ___ यदि तुम्हें भी ऐसी शांति प्राप्त करना हो तो हमने जैसा कहा है, वैसा करो।" ___ उत्थानिका के उक्त कलश का आशय यह है कि नित्यानित्यात्मक आत्मवस्तु का मूल स्वरूप समझे बिना किये गये सदाचरण से पुण्य का बंध तो होगा; पर सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक धारण किये चारित्र का जो फल है, उसकी प्राप्ति नहीं होगी। ___इसीप्रकार सदाचरण के बिना वस्तु का स्वरूप समझना संभव नहीं है अथवा सम्यग्दर्शन और ज्ञान हो जाने पर भी चारित्र धारण किये बिना मोक्ष की प्राप्ति होनेवाली नहीं है। ___ इसलिए यही ठीक है कि द्रव्य की सिद्धि होने पर ही चारित्र की सिद्धि होती है और चारित्र की सिद्धि हो जाने पर ही द्रव्य की सिद्धि होती है। अत: आत्मा का कल्याण करने की भावना रखनेवाले मुमुक्षु भाइयों को चाहिए कि वे द्रव्य के अनुसार चारित्र धारण करें। तात्पर्य यह है कि द्रव्यानुयोग में प्रतिपादित आत्मवस्तु के भानपूर्वक चारित्र धारण करें। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-४ जैनदर्शन में नि:स्वार्थ भाव की भक्ति है। उसमें किसी भी प्रकार की कामना को कोई स्थान प्राप्त नहीं है। जैनदर्शन के भगवान तो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं । वे किसी को कुछ देते नहीं हैं, मात्र सुखी होने का मार्ग बता देते हैं। जो व्यक्ति उनके बताये मार्ग पर चले, वह स्वयं भगवान बन जाता है। अत: जिनेन्द्र भगवान की भक्ति उन जैसा बनने की भावना से ही की जाती है। ह्र आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-२१३
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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