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प्रवचनसार गाथा २१८
२१७वीं गाथा में कहा है कि अंतरंग छेद ही बलवान है और मूलतः वही बंध का कारण है । अब इस गाथा में यह कह रहे हैं कि वह अंतरंग छेद सर्वथा त्यागने योग्य है। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र
अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो । चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुवलेवो ।। २१८ ।। ( हरिगीत )
जलकमलवत निर्लेप हैं जो रहें यत्नाचार से।
पर अयत्नाचारि तो षट्काय का हिंसक कहा ।।२१८ ।। असावधानीपूर्वक आचरण करनेवाले श्रमण, छहों काय संबंधी जीवों का वध करनेवाले माने गये हैं और यदि वे सदा सावधानीपूर्वक आचरण करते हैं तो जल में कमल की भांति निर्लेप कहे गये हैं ।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
" अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होनेवाले अप्रयत-आचार (असावधानीपूर्वक आचरण) के द्वारा ज्ञात होनेवाले अशुद्धोपयोग का सद्भाव हिंसक ही है; क्योंकि छह काय के प्राणों के व्यपरोपण के आश्रय से होनेवाले बंध की प्रसिद्धि है । और अशुद्धोपयोग के बिना होनेवाले प्रयत-आचार (सावधानीपूर्वक आचरण) के द्वारा ज्ञात होनेवाले अशुद्धोपयोग का असद्भाव अहिंसक ही है; क्योंकि पर के आश्रय से होनेवाले बंध का अभाव होने से जल में झूलते हुए कमल की भांति निर्लेपता (अबंध) की प्रसिद्धि है ।
इसलिए जिन-जिन प्रकारों से अंतरंग छेद का आयतनभूत परप्राणव्यपरोपरूप बहिरंग छेद अत्यन्त निषेध्य है; उन-उन सभी प्रकारों से अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेद भी पूर्णत: निषेध्य है, त्यागने योग्य है।"
गाथा २१८
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आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में अयताचार का अर्थ निर्मल आत्मानुभूतिरूप भावना लक्षण प्रयत्न से रहित किया है। तात्पर्य यह है कि आत्मानुभूति के प्रति असावधान होना ही अयताचार है।
उक्त गाथा का अर्थ लिखने के उपरान्त तात्पर्य स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं ह्र
“शुद्धात्मा की अनुभूति लक्षण शुद्धोपयोगपरिणत पुरुष के, छह काय के जीव समूहरूप लोक में विचरण करते हुए, यद्यपि बाह्य में द्रव्यहिंसा है; तथापि निश्चय हिंसा नहीं है। इसलिए शुद्ध परमात्मा की भावना के बल से निश्चय हिंसा पूर्णत: छोड़ देना चाहिए।"
यद्यपि अयत्नाचार का अर्थ असावधानीपूर्वक आचरण और यत्नाचार का अर्थ सावधानी पूर्वक आचरण माना जाता है; तथापि यह अर्थ व्यवहारनय का कथन ही है; क्योंकि निश्चयनय की अपेक्षा तो अयत्नाचार का अर्थ आत्मा के प्रति असावधानी और यत्नाचार का अर्थ आत्मा के प्रति सावधानी ही है।
आचार्य जयसेन के उक्त कथन में यह बात अत्यन्त स्पष्ट है।
इस गाथा के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी १ मनहरण और पण्डित देवीदासजी १ इकतीसा सवैया में लगभग समानरूप से ही प्रस्तुत करते हैं। वृन्दावनदासजी कृत मनहरण छन्द इसप्रकार है ह्र ( मनहरण ) जतन समेत जाको आचरन नाहीं ऐसे,
मुनि को तो उपयोग निहचै समल है। सो तो षटकाय जीव बाधाकरि बाँधे कर्म,
ऐसे जिनचंद वृन्द भाषत विमल है ।। और जो मुनीश सदाकाल मुनिक्रिया विषै,
सावधान आचरन करत विमल है । तहाँ घात होत हू न बँधे कर्मबंध ताकै,
रहै सो अलेप जथा पानी में कमल है ।। १०० ।।