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प्रवचनसार अनुशीलन जैनदर्शन में तो रागभाव की उत्पत्ति को ही हिंसा कहा है। छठवीं भूमिका ( गुणस्थान) में जो शुभराग है, वह भी परमार्थ से तो हिंसा ही है; किन्तु यहाँ चरणानुयोग में भूमिका के बाहर का राग हो उसे ही हिंसा कहा है। वास्तव में एक वीतरागभाव ही अहिंसा धर्म है।"
उक्त गाथा और उसकी टीकाओं में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि हिंसा और अहिंसा का संबंध जीवों के जीवन और मरण से नहीं है; अपितु अपने उपयोग की शुद्धता - अशुद्धता से है।
पहली बात तो यह है कि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से शुभाशुभभावरूप अशुद्धोपयोग शुद्धोपयोग का घातक होने से, रागादिभावरूप होने से हिंसा ही है।
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दूसरी बात यह है कि चाहे जीव मरें या न मरें, पर अयत्नाचार (असावधानी) पूर्वक प्रवृत्ति करनेवालों को बंध अवश्य होता है।
तीसरी बात यह है कि सावधानीपूर्वक आगमानुसार प्रवृत्ति करनेवालों के निमित्त से कदाचित् जीवों का घात भी क्यों न हो जावे; तब भी उन्हें जीवों के घात के कारण रंचमात्र भी बंध नहीं होता ।
इसके बाद आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका में इसी बात को दृष्टान्त और दान्त द्वारा दृढ़ करनेवाली दो गाथाएँ प्राप्त होती हैं; जो आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं हैं। गाथाएँ मूलतः इसप्रकार हैं ह्र
उच्चालियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्थाए । आबाधेज्ज कुलिंगं मरिज्ज तं जोगमासेज्ज ।। १५ ।। हितस तणिमित्तो बंधो सुहुमो य देसिदो समये । मुच्छा परिग्गहो च्चिय अज्झप्पपमाणदो दिट्ठो ।। १६ ।। ( हरिगीत )
हो गमन ईर्यासमिति से पर पैर के संयोग से ।
हों जीव बाधित या मरण हो फिर भी उनके योग से ।। १५ ।।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ ८३
गाथा २१७
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ना बंध हो उस निमित से ऐसा कहा जिनशास्त्र में । क्योंकि मूर्च्छा परिग्रह अध्यात्म के आधार में ।। १६ ।। मूर्च्छा को ही परिग्रह कहे जाने के समान ईर्यासमिति पूर्वक चलते हुए मुनिराज के द्वारा कहीं जाने के लिए उठाये गये पैर से किसी छोटे प्राणी को बाधा पहुँचने पर या उसके मर जाने पर भी उन मुनिराज को उस प्राणीघात के निमित्त से किंचित्मात्र भी बंध नहीं होता ह्र ऐसा आगम में कहा है।
गाथाओं का उपर्युक्त सामान्य अर्थ करने के उपरान्त आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में दृष्टान्त (उदाहरण) और दान्त ( सिद्धान्त) को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“मूर्च्छा परिग्रहः ह्र इस सूत्र में कहे अनुसार जिसप्रकार अध्यात्मदृष्टि से मूर्च्छारूप रागादि परिणामों के अनुसार परिग्रह होता है, बाह्य परिग्रह के अनुसार नहीं; उसीप्रकार सावधानीपूर्वक गमनादि करते हुए सूक्ष्म जन्तुओं के घात हो जाने पर भी, जितने अंश में आत्मलीनतारूप परिणाम से चलनरूप रागादि परिणति लक्षण भावहिंसा है; उतने अंश में बंध है, पैरों के संघट्टन (रगड़ना) मात्र से बंध नहीं है। उन मुनिराजों के रागादि परिणति लक्षण भावहिंसा नहीं है, इसकारण बंध भी नहीं है। "
इसप्रकार हम देखते हैं कि इन गाथाओं में उसी बात को सोदाहरण दुहरा दिया गया है; जो बात २१७वीं गाथा में कही जा चुकी है।
आत्मानुभूति प्राप्त पुरुषों के चित्त को वर्तमान आपत्तियाँ और सम्पत्तियाँ विचलित नहीं कर पाती हैं। लौकिक घटनाएँ उन्हें आन्दोलित नहीं करतीं, वे मात्र उन्हें जानते हैं, वे उनके ज्ञान का मात्र ज्ञेय बनकर रह जाती हैं। भूमिकानुसार कमजोरी के कारण किंचित् राग-द्वेष उत्पन्न भी हो जावें तो वे उसे भी ज्ञान का ज्ञेय बना लेते हैं। ह्र मैं कौन हूँ, पृष्ठ- १७