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प्रवचनसार अनुशीलन जिन मुनिराजों का आचरण सावधानीपूर्वक नहीं वर्तता; उन मुनिराजों का उपयोग समल ही होता है। वे षट्काय के जीव को बाधा पहुँचानेवाले होने से कर्मों को बाँधते हैं ह्र ऐसा कर्ममल से रहित जिनेन्द्र भगवान ने कहा है और जो मुनिराज मुनि के योग्य क्रियाओं में सदा सावधानीपूर्वक निर्मल आचरण करते हैं; उनके द्वारा जीवों का घात होने पर भी उन्हें बंध नहीं होता।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए कहते हैं ह्र ___ "मुनिराजों २८ मुलगुण आदि संबंधी शुभराग छठवीं भूमिका में मर्यादा प्रमाण होता है। उसमें तीव्रराग की अति हो जाए तो मुनिराज को छह काय का हिंसक कहा है; इसलिये मुनिपने में तीव्रराग नहीं हो सकता । मुनिपने में छह काय के जीवों की हिंसा का निषेध वर्तता है माने तत्संबंधी तीव्रराग का निषेध वर्तता है।' ___ अन्तर में तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक बाह्य में वस्त्रादि रहित निर्ग्रन्थ नग्न दिगम्बर दशा का नाम मुनिदशा है। इसके बगैर वीतराग मार्ग में अन्य कोई मुनिपना त्रिकाल संभव नहीं है।" __इस गाथा में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि अयत्नाचारी श्रमण के निमित्त से चाहे जीव मरे, चाहे न मरे; पर उसे छहकाय के जीवों का हिंसक माना गया है। इसीप्रकार यत्नाचारी श्रमण के निमित्त से भले ही सूक्ष्मजीवों का घात हो जाये; तब भी वह जल में रहते हुए भी जल से भिन्न कमल के समान अहिंसक ही है।
अयत्नाचार संबंधी वृत्ति (आत्मा की अरुचि) और प्रवृत्ति (असावधानीपूर्वक आचरण) अंतरंग छेद है और जीवों का वध आदि बहिरंग छेद है। ध्यान रखने की बात यह है कि बहिरंग छेद से अंतरंग छेद बलवान है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-८६ २. वही, पृष्ठ-८६
प्रवचनसार गाथा २१९ विगत गाथाओं में जीवों के प्राणव्यपरोपणसंबंधी छेद की बात स्पष्ट की; अब इस गाथा में परिग्रह संबंधी अंतरंग छेद की बात करते हैं, उसके निषेध का उपदेश देते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्न
हवदिवण हवदिबंधो मदम्हि जीवेऽध कायचे?म्हि। बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा छड्डिया सव्वं ।।२१९।।
(हरिगीत) बंध हो या न भी हो जिय मरे तन की क्रिया से।
पर परिग्रह से बंध हो बस उसे छोड़े श्रमणजन ||२१९|| कायचेष्टापूर्वक जीवों के मरने पर बंध हो अथवा नहीं भी हो; किन्तु उपधि अर्थात् परिग्रह से तो बंध होता ही है; इसलिए श्रमणों (अरहंतदेवों) ने सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़ा है। __आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"जिसप्रकार कायव्यापारपूर्वक परजीवों के घात को अशुद्धोपयोग के सद्भाव और असद्भाव के द्वारा अनैकान्तिक बंधरूप होने से छेदपना अनैकान्तिक (अनिश्चित ह्र हो भी और नहीं भी हो ह्र ऐसा) माना गया है; उसप्रकार की बात परिग्रह के साथ नहीं है; क्योंकि परिग्रह अशुद्धोपयोग के बिना सर्वथा नहीं होता।
परिग्रह का अशुद्धोपयोग के साथ सर्वथा अविनाभावत्व होने से ऐकान्तिक (नियम से अवश्यंभावी) अशुद्धोपयोग के सद्भाव के कारण परिग्रह तो ऐकान्तिक (नियम से) बंधरूप है। इसलिए परिग्रह को छेदपना भी ऐकान्तिक (अनिवार्य) ही है।
यही कारण है कि परम श्रमण अरहंत भगवन्तों ने पहले से ही स्वयं परिग्रह को छोड़ा है। इसलिए दूसरे श्रमणों को भी अंतरंग छेद के समान