________________
६८
या सिलाट भी जानते थे। यही भारतीय वास्तुविद्या की मान्य लोक-पद्धति थी और आज की जहां यह कला पश्चिमी आक्रमग से सुरक्षित है वहां वास्तुविद्याचार्य स्थपति या शिल्पी इस प्रकार संपूर्ण जानकारी प्रापः कण्ठस्थ रखते हैं। मण्डोवर के कई घरों में क्षुरक, कुम्भक, अंतर्पत्र, कपोताली, मंचिका, जंघा, पासपट्टी, भरणी, 'कूटछाय (छज्जा ), आदि मुख्य थे। इनमें मंचिका या मंजी के ऊपर जा का स्थान महत्वपूर्ण था। इसी में देशगना या सुरसुन्दी मूर्तियों का निर्माण किया जाता था। इन्हें ही वास्तुसार में ठक्कुर फेक ने प्रेक्षणिका कहा है जो नाट्य की विविध मुद्राओं का प्रदर्शन करती हुई दिखाई जाती थीं । उड़ीसा और खजुराहो के मंदिरों के मण्डोबरों पर नंबा भाग में बनी हुई स्त्री मूर्तियां उस शिल्प को प्राणवत्ता प्रदान करती हैं। कहीं-कहीं दो जधाएं भी बनाई जाती थी जिन्हें तलनंधा और उपरिजंया कहते थे । इस प्रकार के प्रासाद का एक मानचित्र पृ. ६६ पर अंकित है।
प्रासाद के द्वार का निर्माण और अलंकरण भी महत्त्वपूर्ण अंग था। द्वार के दोनों स्तम्भ कई शाखाओं में बांट कर बनाए जाते थे। इन्हें द्वारशाखा (हि. बारसाख ) कहते थे। उन्हीं से निकले हुए तिसाही (सं० त्रिशाखा ), पंचसाही ( सं• पंचशाखा ) शब्द भी लोक में प्रचलित है। द्वारशाखाओं की संख्या नो तक कही गई है। प्रत्येक की अलग अलग संज्ञा होती थी जैसे पत्रशाखा, गन्धर्वशाखा, रूपशाखा, स्वल्पशाखा, सिंहशाखा आदि । स्पष्ट है कि उस-उस अलंकरण के अनुसार इन शाखाओं का नाम पड़ता था। वराहमिहिरने द्वार के अलंकरगों का बहुत ही सटीक वर्णन किया है। जो गुप्तकालीन मंदिरद्वारों पर घटित होता है। उस वर्णन में मंगल्य-विहग अर्थात् मांगलिक पक्षी नामक अलंकरण का भी उल्लेख भाया है। यह अमी तक हमें केवल आसाम प्रदेश के दहपर्बतिया नामक स्थान में बने हुए गुप्तकालीन मंदिर द्वार पर मिला है। गुप्तयुग में मंदिर के द्वार की शोभा कुछ विलक्ष ग होती थी और कई प्रकार के मौलिक अभिप्रायों से द्वारझाखाओं का रूपसम्पादन किया जाता था । मध्यकाल में भी प्रासाद-द्वार एवं तोरणो का महत्व विशिष्ट बना रहा । मंदिर के सामने एवं भीतर भी कई प्रकार के तोरण विकसित किए गए, हिण्डोलक तोरण, तलफ तोरण, कपड़वजी तोरण इत्या है। बारसाख का नकशा स्थपति के कौशल का सूचक्र होता है। बारसाख के निचले भाग में जिसे ठेका कहते हैं, जीस में आकृति बनाई जाती थी, जहां गुप्तयुग में प्रतिहारी मूर्तियां अंकित की जाती थीं।भार के शीर्ष भाग या उतरंग को और निचले भाग या देहली को भी अलंकृत किया जाता था। देहली के तल दर्शन में वृत्तमंदारक या संतानक और उसके दोनों ओर कीर्तिवक्त्र या प्रास अर्थात् सिंहमुख बनाए जाते थे । ___ कूम्छाद्य या छज्जे से ऊपर शिखर आरंभ होता था। शिखर के निर्माण में भारतीय शिल्पियोंने अपने कौशल की पराकाष्ठा विकसित की । शिखरों के विविध प्रकार एवं अंगप्रत्यंग का वर्णन करने के लिए एक महाग्रंथ ही चाहिए। नागर जाति के मध्यकालीन शिखरों में दो अलंकरण मुख्य थे। एक अंग दूसरे अण्डक । शृंग शिखर की चारों दिशाओं में बनाए जाते थे और वे छोटे बड़े कई होते थे। इन में सब से बडे श्रृंग के उरुश्रृंग कहा जाता था, जिस के लिए लोक में छातियाश्रृंग नाम चालू है। एक प्रकार से यह शिखर का सम्मुख दर्शन होता था जिसे श्रृंगों के रूप में दोहराया जाता था। प्रासाद निर्माण की इस विशेषता का स्पष्ट परिचय किसी मंदिर के शिखर को देखने से ही समझा जा सकता है। मंदिर के चौमुखी दर्शन को छोटे रूप में उत्कीर्ण कर के अण्डक का रूप दिया जाना था। इस से शिखर की ऊंचाई क्रम से अलंकृत की जाती थी। नाना