________________
जाति के प्रासादों के शिखर का भेद अंडको की संख्या पर निर्भर करता था। कहीं अण्डकों के लिए कूट शब्द भी प्रचलित था और एक सहस्त्र कूट वाले शिस्त्ररों का निर्माण भी सुनने में आता है। श्रृंग और अण्डकों के पेचीदा विन्यास का निर्माण करने में मध्यकालीन महास्थपतियोंने रेखागणित की जिम जादूगरी का परिचय दिया है उस की कल्पना से मस्तिष्क चकराने लगता है। सत्य तो यह है कि प्रासाद के जिस भाग को भी लें उसी में रेखाओं की बारीकी और जडाऊ लक्षण की शक्ति को पराकाष्ठा पाई जाती है, मानों मंदिर निर्माग पाषग-शिल्पियों का काम न रह कर सोने चांदी का जड़ाऊ काम करने वालों का शिल्प बन गया था। शिखर के ऊपरी भाग में : स्कंध, आमलक शिला, कलश और वजा का सन्निवेश रहता था।
जिस प्रकार. ब्रह्मसूत्र या ऊंचाई में, वैसे ही गर्भसूत्र या लम्बाई में भी कई भाग विकसित हुए, जैसे गर्भगृह (हिन्दी गभारा ), उसके आगे अंतराल या कौली मण्डप, फिर गूढमंडप, फिर त्रिक मंडप या चौकी, फिर रंगमण्डप या नृत्यमण्डप और अन्त में मुखमण्डप । इन गूढमढप का शिखर गर्भगृह के शिखर से भिन्न होता था और उसे घण्टा या गूमट कहते थे । गर्भगृह का शिखर उदयात्मक या उठा हुआ, और मंण्डप का शिखर बैठा हुआ होता था, जिस के थर एक दूसरे से सटे हुए रक्से जाते थे। इसका उदाहरण पृ० ८८ के संमुख मानचित्र में स्पष्ट होता है। मण्डप की छत था गूमट के निचले भाग को वितान कहते थे, जिसमें अनेक प्रकार के अलंकरणों से युक्त क्रमशः ऊपर उठते हुए और घटते हुए थर बनाए जाते थे। इन्हीं में देदरिका, गजतालु (हाथी के तालु की आकृति जैसा, हि, गगालु) और कोल नामक थर थर मुख्य थे। इसके जिस भाग में १६ विद्याधरों की मूर्तियां बनाई जाती थीं उसे गूमट का रूपकण्ठ कहते थे। गूमट के मध्य में भीतर की और पद्मशिला का अलंकरण उसे विशिष्ट शोभा प्रदान करता था और विशाल आकार वाले झूमर की तरह लटकता हुआ दिखाई पड़ता था। आबू के देलवाडा मंदिर में संगमरमर की जो पद्मशिला है उसकी शोभा संसार में अद्वितीय मानी जाती है । गूमट के बाहर की और का भाग संवरणा कहलाता था और उसमें घण्टिका, कूट और सिंहों के अनेक अलंकरण बनाकर नामा भेदों का निर्माण किया जाता था। इस प्रकार की पच्चीस संवरणाओं का विवरण विद्वान् व्याख्याकार ने किया है (पृ० १७१)। संवरणा के बीचों बीच सब से ऊपरी भाग में मूल धष्टिका
और उसके अतिरिक्त और भी छोटे आकार की घण्टिकाएं बनाई जाती थीं। इन सबका विवरण चित्रों के साथ व्याख्याकार ने स्पष्ट किया है।
श्री प्रभाशंकर जीने इस एक ग्रन्थ की परिभाषाओं को स्पष्ट करने में जो परिश्रम किया है उससे। उनका पाण्डित्य और अनुभव तो प्रकट होता ही है, किन्तु हमारा विश्वास है कि समस्त वास्तु शास्त्र के सुस्पष्ट अध्ययन का एक नया द्वार भी उन्मुक्त होता है। उनके दिखाए मार्ग से दीपात्र ग्रंथ की परिभाषाओ को जानकर समरांगण-सूत्रधार, अपराजित-पृच्छा, आदि अन्य क्लिष्ट प्रन्थों का भी मर्म समझने में सहायता मिलेगी। इसके लिए हम शिल्पविशारद स्थपति श्री प्रभाशंकरजी सोमपुरा के अत्यंत अनुगृहीत है। इतने अधिक चित्रों के साथ इस दीपार्णव ग्रंथ का प्रकाशन उनके अध्यवसाय का प्रमाण है। शरत् पूर्णिमा, सं. २०१७
वासुदेवशरण अग्रवाल ५-१०-६०
अध्यापक, कला और स्थापत्य विभाग, काशी विश्वविद्यालय.