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________________ ६७ की जितनी चौड़ाई हो उससे तिगुनी, चौगुनी या पांचगुनी चौड़ाई का जगती पीठ बनाया जाता था। उसे प्रासाद का अधिष्ठान भी कहते थे। जगती की ऊंचाई का अनुपात प्रासाद के मण्डोवर या कोठे की ऊंचाई के अनुसार रखा जाता था। (पृ. ३७)। यदि चोवीस हाथ या ३६ फुट ऊंचा प्रासाद हो तो जगती का उदय ८ हाथ या १२ फुट तक हो सकता था। इसी से उसके महत्त्व का अनुमान किया जा सकता है। उच्छ्राय या ऊंचाई को जगती के नाना प्रकार के थरों से अलंकृत किया जाता था। इन का भी ब्योरेवार उल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थ में (पृ. ३८), एवं वास्तुसार, प्रासादमण्डन आदि साहित्य में आया है । उदाहरण के लिए नीचे से शुरू कर के पहले जाड्यकुम्भ (हिन्दी जाडूमो ), कणिका (हि. कनी), पद्मपत्र युक्त शीर्ष पत्रिका, क्षुरक (हि. खुरा ), कुम्भक, कलश, अंतःपत्रक या अंतराल, कपोताली (हि. केवाल ) पुष्पकण्ठ, इस प्रकार जगती के भव्य स्वरूप की कल्पना की जाती थी। इस प्रकार की जगती के मध्य भाग में प्रासाद या देव मन्दिर का विन्यास किया जाता था। उसके पांव भाग मुख्य थे-पहला प्रासादपीठ, दूसरा मण्डोबर या कोठा या गर्भगृह, तीसरा शिखर, चौथा आमलकशिला एवं पांचवां ध्वज । प्रासदपीठ के कई प्रकार होते थे। जैसा विशाल मंदिर का उठान होता था उसी के अनुसार जगती और प्रासादपीठ की कल्पना की जाती थी। प्रासादपीठ में भी जाज्यकुम्भ, कमाली, ग्रासपट्टी (सिंहमुख या कीर्तिमुख ) के अतिरिक्त विशेष. शोभा के लिए कई प्रकार के थर रक्खे जाते थे। उन में अश्वथर, नरथर और हंसथर, मुख्य थे। कुमारपाल युग में इन थरों का पूरा विकास हो गया था। नरथर में स्त्री पुरुषों के चौरासी आसनों में अंगमरोड की पूरी कला दिखाई जाती थी और ऐसा विश्वास था कि उस से मंदिर पर बिजली नहीं गिरेगी। मध्यकालीन बड़े मंदिरों में इन्हें स्पष्ट देखा जा सकता है। जाज्यकुम्भ के नीचे कई मोटे पत्थरों के मजबूत थर रक्खे जाते थे उन्हें भिट्ट कहते थे। ' इसके ऊपर वास्तविक प्रासाद या मंदिर का निर्माण किया जाता था। उसके लिए प्राचीन शब्द गर्भगृह था किन्तु' मध्यकाल में उसे मण्डोवर कहेने लगे। इस शब्द की व्युत्पत्ति सार्थक है। ऊंची जगती या पीठ को 'मण्ड' कहते थे और उसके ऊपर गर्भगृह के रूप में जो . चोकोर या आयत कोठा बनाया जाता था वही मण्डोवर कहलाया। मण्डोवर के उदय या ऊंचाई को मूलनासिक जीतना रखते है, क्योंकि मूल से लेकर नासिका तक का उदय या प्रमाण इसके अंतर्गत आता था। प्रासाद की भित्ति या ती एक दम सीधी सपाट होती थी या आगे चलकर उसी में रथ, प्रतिस्थ, कोणरथ, ये कई भाग निर्गम और प्रवेशक की युक्ति से बनाए जाते थे। इन्हीं फालनाओं को मिलानेवाले छोटे भाग नन्दी कहलाते थे। ग्रन्थ में मण्डोवर के स्वरूप निर्माण का विस्तार से वर्णन किया गया है, और उसके विविध थरों के संस्कृत नाम और परिभाषाएं एवं उनकी ऊंचाई और निर्गम का उल्लेख आया हैं (पृ. ५६-७० )। इस विवरण से ज्ञात होता है कि प्रासाद का अंग-प्रत्यंग गणितीय प्रमाग से नियंत्रित था। प्रत्येक भाग की ऊंचाई, उसका निर्गम या प्रवेश एवं दूसरे भागों के साथ उसका अनुपात निश्चित्त था। ये सारी नाप-जोख ' प्रधान स्थपति के मस्तिष्क में विद्यमान रहती थी और तदनुसार ही अन्य शिल्पी प्रत्येक थर के एक-एक पत्थर को भूमि पर घड कर तैयार करते जाते थे, और वहीं से प्रासाद के उदय में एक थर के बाद दूसरे थर की उत्तरोत्तर रचना होती जाती थी । मानोन्मान की यह परिपाटी बंधी-बंधाई होती थी। जिसे परम्परागत नाप-जोख के अनुसार प्रासादों का निर्माण करने वाले अन्य शिल्पी
SR No.008415
Book TitleDiparnava Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherPrabhashankar Oghadbhai Sompura Palitana
Publication Year
Total Pages642
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Literature
File Size21 MB
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