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नगर, वापी, जलाशय, दुर्ग, स्तम्भ आदि के सहस्रों उदारण देश में इस समय भी सुरक्षित हैं । वास्तु विद्या नितान्त व्यावहारिक ज्ञान है । किन्तु यह करते की विद्या है। जो क्रियाकुशल है वही इसर. सचा जानकार है, किन्तु प्रयोग के पीछे शास्त्र की भी दृढ सत्ता थी और निर्माण सम्बन्धी गणित का पूरा लेखा-जोखा प्रयोग कुशल स्थपतियों के पास रहता था जिसे मान कहते थे। सौभाग्य से इस विषय का 'मानसार ' नामक एक विशिष्ट ग्रन्थ अभीतक मुरक्षित रह गया है। वह लगभः गुप्त युग के वास्तु और स्थापत्य का निर्देश करता है । वी प्रसन्नकुमार आचार्य ने उसे मूल, अंग्रेजी अनुवाद और शब्दसूची के साथ सम्पादित किया है। संस्कृत साहित्य में प्राचीन वास्तु और शिमविया सम्बन्धी ग्रन्थों का भी पर्याप्त विस्तार. मिलता है। उनमें से कुछ महत्वपूर्ण ये हैं:-अर्थशास्त्र ( अ० २२-२३), मानसार, बृहत्संहिता (अ० ५३-५८), मंजुश्रीमूलकल्प, मत्स्यपुराण ( अ० २५२, २५५, २५५, २५८, २६२, १६३, २६६, २७०), गरुड पुराण (अ० ४५-४८), अग्नि पुराण ( अ. ४२-४६, ४६-५५, ६०, ६२, १०४-१०६), विण्णुधर्मोत्तर पुराण (चित्रसूत्रप्रेकरग), समराङ्गणपूत्रधार, मानसोल्लास, अपराजितपृच्छा, तंत्रसमुच्चय, ईशानशिवगुरुदेवपद्धति, मयमतम् , कामिकागम, अशुम बेदागम, काश्यपशिल्प, वास्तुसार, शिल्परत्न, हयशीर्षपंचरात्र, लक्षणसारसमुच्चय ( ३५०० श्लोकों का महत्वपूर्ण अप्रकाशित ग्रन्थ ), प्रासादमण्डन, रूपमण्डन, क्षीरार्णव, दीपार्णव इत्यादि ।
यह प्रसन्नता की बात है कि इस सूची के अधिकांश ग्रन्थ मुद्रित हो चुके हैं। किन्तु जिस रूप में शिल्पान्यों का प्रकाशन होना चाहिए वैसा दो-एक को छोड कर शेष ग्रैन्थों के सम्बन्ध में अभी तक नहीं हुआ है। वास्तुशास्त्र संबंधी साहित्य का प्रामाणिक संस्करण वही हो सकता है जिसमें पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई हो और विषय के स्पष्टीकरण के लिए मानचित्रो का
आश्रय लिया गया हो। एक बडी आवश्यका ईस बात की भी है कि जो देवप्रसाद या मन्दिर विद्यमान है उनके साथ शास्त्रीय वर्णन का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय। तभी उन वर्णनों का मर्म और स्वरूप एवं पारिभाषिक शब्दों के लक्षण समझ में आ सकते हैं। जिस साहित्य का ऊपर उल्लेख किया गया है उस सब को आधार बना कर उसकी शब्दावली का कोष रूप में संग्रह करने और सचित्र व्याख्या करने की भी आवश्यकता है। अनुसंधान कार्य में सलग्न किसी भी विशिष्ट संस्था को यह कार्य अपने हाथ में लेना चाहिए । इसी के साथ यह भी आनुषंगिक रूप से कर्तव्य है कि जो शब्दावली पुराने शिल्पी या कारीगरों के पास अभी तक बच गई है उसका भी संग्रह समय रहते कर लिया जाय । विशेषतः राजस्थान, गुजरात, सौराष्ट्र, केरल, तमिलनाड, उड़ीसा और ने राल में इस प्रकार की महत्वपूर्ण शब्दावली अभी तक प्राप्त की जा सकती है। यह कार्य परिश्रमसाध्य तो अश्य है किन्तु प्राचीन भारतीय स्थापत्य की परिभाषाओं समझने के लिए अमृततुल्य भी है।
इस प्रकार के साहिल का जिस रूप में प्रकाशन होना चाहिए, उसका एक अच्छा उदाहरण श्री प्रभाशंकर जीने 'दीराव' ग्रन्थ के इस संस्करण द्वारा प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ में सत्ताइस अध्याय हैं । पूर्वार्ध के उन्नीस अध्यायों में प्रासाद निर्माग संबंधी विधि का विस्तार से वर्णन है। इन में जगती ( अ० ३), प्रासादपीठ ( अ० ४), मण्डोवर (अ० ५), द्वार (अ. ६), शिखर (अ. ९), मण्डप (अ. १०) और संवरणा (अ० ११), ये प्रकरण अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। मध्यकालीन प्रासादों में जगती पीठ का महत्त्वपूर्ण स्थान था। प्रासाद या मंदिर के गर्भ गृह