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________________ दीपार्णव ग्रन्थ की भूमिका । भूमिका-लेखक : एशिया खंड का सुप्रसिद्ध कला-स्थापत्य का मर्मज्ञ प्रखर पुरातत्वज्ञ डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल जी-अध्यापक-कला और स्थापत्य विभाग-काशी विश्वविद्यालय श्री प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुरा सौराष्ट्र के इस समय प्रख्यात स्थपति है। प्राचीन मन्दिर निर्माग के शिल्प का जैसा प्रकृष्ट अनुभव उन्हें है वैसा कम देखने में आता है। यही कारण है कि सोमनाथ के मध्यकालीन भग्न शिवमन्दिर के स्थान पर जब नये मन्दिर के निर्माण का निश्चय किया गया तो उस कार्य के लिये सब का ध्यान श्री प्रभाशंकरभाई की ओर ही गया और वह कार्य उन्ही को सौंपा गया। उस समय सार्वजनिक इच्छा यह थी कि स्थापत्य और शिल्प की दृष्टि से मध्यकालीन सौराष्ट्र के महान् देवप्रासादों की जो परम्परा थी उसी शैली का अवलम्बन लेते हुए नये मन्दिर का भव्य स्वरूप कल्पित किया जाय । श्री प्रभाशंकरजी को भी अपनी योग्यता प्रदर्शित करने का मुयोग प्राप्त हुआ और उन्होंने सोमनाथ पाटन में अर्वाचीन शिवमन्दिर का निर्माण प्राचीन वास्तु शास्त्र के अनुसार ही सम्पन्न कराया । उस में जगती, प्रासादपीठ, मण्डोवर और शिखर इत्यादि की रचना और साज-सज्जा के रूप में प्राचीन वास्तु-विद्याचार्यो के कौशल का नया संस्कार देखकर प्रसन्नता होती है। श्री प्रभाशंकरभाई से हमारा प्रथम परिचय लगभग १२ वर्ष पूर्व नई दिल्ली में हुआ था। बहुत दिनों से हमारी इच्छा किसी ऐसे व्यक्ति के दर्शन की थी जो मध्यकालीन शिल्प-ग्रन्थों की पारिभाषिक शब्दावली का ज्ञान रखता हो और जो प्राचीन मन्दिर अवशिष्ट हैं उनके साथ मिलाकर उन ग्रन्थों की व्याख्या समझा सके। श्री प्रभाशंकर के रूप में इस प्रकार के स्थपति से मेरा साक्षात् परिचय हुआ। उन्हें मन्दिर निर्माग के शास्त्र और प्रयोग दोनोका सुन्दर परिचय है। हमने स्वयं अनेक शब्दोका उनसे संग्रह कीया और यह इच्छा प्रकट की कि वे शिल्प शास्त्रीय पारिमाषिक शब्दों का एक कोश ही तैयार कर दें। उन्होंने इस सुझाव को सहर्ष स्वीकार किया और जैसा उन्होंने मुझे सूचित किया है आजकल वे इस प्रकार के कोश का निर्माण कर रहे हैं। कई वर्ष पूर्व श्री प्रभाशंकरजीने रागा कुम्भा के राजकीय-स्थपति सूत्रधार मंडन के अति उपयोगी ग्रन्थ प्रासादमंडन की अपनी लिखी हुई गुजराती टीका हमारे पास भेजी थी। वह ग्रन्थ ता मुद्रित नहीं हुआ, किन्तु उसी की गुजराती और हिन्दी टीका जयपुर के पंडित भगवानदासने अनेक नकशों के साथ तैयार की है जो इस समय छप रही है। भाई प्रभाशंकर और पंडित भगवानदास दोनों का जन्म सौराष्ट मंडल के पादलिसपुर या पालिताना नगर में हुआ था जहां प्राचीन मन्दिर शिल्प की परम्परा के अनुकूल सूत्र अभि तक पाए जाते हैं। इसी बीच में श्री प्रभाशंकरजीने अपनी प्रतिभा का सदुपयोग एक नये ग्रन्थ के उद्धार में किया है । स्थापत्य और मन्दिर निर्माग सम्बन्धी दीपार्णव नामक संस्कृत ग्रन्थ का गुजराती अनुवाद ५६. नकशों के साथ उन्होंने तैयार किया है और वह इस विशद रुप में मुद्रित और प्रकाशित भी हो रहा है। भारत में' नाना प्रकार के शिल्पों की और विशेषतः वास्तु और स्थापत्य की परम्परा लगभग ५ सहस्त्र वर्ष से चली जाती है । नाना रूपों में इसका विकास हुआ है। चैत्यगृह, स्तूप, तोरण-वे देकाऐं, देवमन्दिर, राजप्रासाद,
SR No.008415
Book TitleDiparnava Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherPrabhashankar Oghadbhai Sompura Palitana
Publication Year
Total Pages642
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Literature
File Size21 MB
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