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________________ २९. श्री वचनगुप्तिधारक मुनिराज पूजन (मानव) पालनकर वचनगुप्ति का मैं मौनव्रती बन जाऊँ। निज अंतर में रम जाऊँ अपने भीतर थम जाऊँ॥१॥ वचनावलि सर्वभाँति की त्याग हे अन्तर्यामी। इसके चारों भेदों को तव कपा से विंश स्वामी ।।२।। प्रभु वचनगुप्ति की पूजन महिमामय मंगलकारी। सबको ही मोक्षमार्ग में यह होती है हितकारी ।।३।। ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिधारकमुनिराज अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिधारकमुनिराज अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ हीं श्री वचनगुप्तिधारकमुनिराज अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (चौपायी आचंलीबद्ध ) संयम जल से कर अभिषेक । गाऊँ प्रभु के गुण प्रत्येक। परमगुरु हो जय जय नाथ महाविभू हो।। वचन गुप्ति है अचल महान । सर्वोत्तम है मौनप्रधान । देखे नाथ दूर दुःख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।१।। ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिधारकमुनिराजाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। संयमचंदन तिलक लगाय। भवज्वर , सम्पूर्ण भगाय। परम प्रभु हो जय जय नाथ महाविभु हो।। वचनगुप्ति है अचल महान । सर्वोत्तम है मौन प्रधान । देखे नाथ दूर दुःख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।२।। ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिधारकमुनिराजाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। संयम के अक्षत गुणरूप। अक्षयपद दाता चिद्रूप। परम प्रभु हो जय जय नाथ महाविभु हो ।। श्री वचनगुप्तिधारक मुनिराज पूजन वचनगुप्ति है अचल महान । सर्वोत्तम है मौन प्रधान । देखे नाथ दूर दुःख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।३।। ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिधारकमुनिराजाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। संयम के पुष्पों की माल । कामविनाशक शील विशाल । परम प्रभु हो जय जय नाथ महाविभ हो। वचनगुप्ति है अचल महान । सर्वोत्तम है मौन प्रधान । देखे नाथ दूर दुःख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।४।। ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिधारकमुनिराजाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। संयमचरु श्रेष्ठ महान । निराहार पद करें प्रदान । परम प्रभु हो जय जय नाथ महाविभु हो।। वचनगुप्ति है अचल महान । सर्वोत्तम है मौन प्रधान । देखे नाथ दूर दुःख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।५।। ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिधारकमुनिराजाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। संयमदीपकज्योति प्रजाल । हर लँ मिथ्याभ्रम जंजाल । परम प्रभु हो जय जय नाथ महाविभु हो।। वचनगुप्ति है अचल महान । सर्वोत्तम है मौन प्रधान । देखे नाथ दूर दुःख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।६।। ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिधारकमुनिराजाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। संयमयुक्त ध्यानमय धूप। अष्टकर्म नाशक चिद्रूप। परम प्रभु हो जय जय नाथ महाविभु हो। वचनगुप्ति है अचल महान । सर्वोत्तम है मौन प्रधान। देखे नाथ दूर दुःख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।७।। ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिधारकमुनिराजाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। संयमतरु फल मोक्ष महान । परम सौख्यदाता निर्वाण। परम प्रभु हो जय जय नाथ महाविभु हो।। वचनगुप्ति है अचल महान । सर्वोत्तम है मौन प्रधान । देखे नाथ दूर दुःख हो पूजे नाथ महासुख हो।।८।। ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिधारकमुनिराजाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। संयम के लाऊँ निज अर्घ्य । पाऊँ स्वपद प्रसिद्ध अनर्घ्य । परम प्रभु हो जय जय नाथ महाविभु हो।। 66
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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