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रत्नत्रय विधान
वचनगुप्ति है अचल महान । सर्वोत्तम है मौन प्रधान । देखे नाथ दूर दुःख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।९ ।। ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
महार्घ्य ( वसंततिलका)
स्वात्मानुभूति पावन उर में पधारी । जितने विभाव थे वे भागे विकारी ॥ शुद्धात्मतत्त्व चिन्तन के भाव जागे । आपूर्ण सौख्यपति हूँ मैं ज्ञानधारी ।। ( गीतिका )
वचन से कुछ भी न बोलूँ मौन धारण करूँ प्रभु । सतत हो एकाग्र निज में आत्मा में रहूँ विभु ॥ १ ॥ वचन की सारी प्रवृत्ति स्ववश कर निज में रहूँ । सतत मौनारूढ़ होकर आत्मसागर में बहूँ || २ || वचन, सत्य, असत्य, अनुभय, उभय त्यागूँ चार योग । आत्मा में करूँ विचरण सदा ही जो है मनोज्ञ ||३||
जल्प और विजल्प में उलझैं नहीं स्वामी कभी । निर्विकल्प रहूँ सदा ही परम निजगुण पा सभी || ४ ||
ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(मानव)
अन्तर्मन निर्मल करने अब भेद-ज्ञान आएगा।
सम्यक्त्व शक्ति को पाकर यह जीव सौख्य पाएगा । । १ ।। होगा यह स्वपर विवेकी निजपर को पहचानेगा । आनन्द अतीन्द्रिय सागर निज उर में लहराएगा || २ || चारित्र स्वरूपाचरणी झलकेगा अभ्यंतर में । अनुभवरस पीते-पीते शिवपथ पर आ जाएगा || ३ ||
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श्री वचनगुप्तिधारक मुनिराज पूजन
संयम की परम प्रभा पा यह मोह क्षीण कर देगा । घातिया नाश करके यह सर्वज्ञ स्वपद पाएगा ||४|| जो निज को ही ध्याएगा वह होगा सम्यग्ज्ञानी । अष्टादशदोष नष्टकर परमात्मा हो जाएगा ॥५॥ फिर ये अघाति भी यकर सिद्धत्व स्वगुण लाएगा । यह त्रिलोकाग्र पर जाकर निर्वाण सौख्य पाएगा || ६ || ( शार्दूलविक्रीडित )
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हित मित प्रिय वच ही महान उत्तम कल्याणकारी सदा । इससे बढ़कर श्रेष्ठ मौन मुद्रा ऋषिराज ही धारते ।। निर्मोही निग्रंथ वीतरागी करुणामयी को नमन । पीते हैं रस साम्यभाव नित ही निर्धार आनंदघन ।। ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। (वीर )
वचनगुप्ति की पूजन करके जाना स्वामी मौन महत्त्व । साम्यभाव रस की महिमा सुन जागा उर में स्वतः समत्व ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगम्बरवेश ।। पुष्पांजलिं क्षिपेत्
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