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रत्नत्रय विधान
श्री मनोगुप्तिधारक मुनिराज पूजन
धर्मध्यान है विमल स्वद्युतिमय । पाऊँ केवलज्ञान ज्योतिमय ।
मनोगुप्ति ही मनवश कर्ता । सर्व शुभाशुभ आस्रवहर्ता ।।६।। ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिधारकमुनिराजाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मध्यान की ही स्वधूप लूँ। नित्य निरंजन निज स्वरूप लूँ।।
मनोगुप्ति ही मनवश कर्ता । सर्व शुभाशुभ आस्रवहर्ता ।।७।। ॐ ह्रीं श्री मनोगप्तिधारकमुनिराजाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
धर्मध्यान के ही फल पाऊँ। पावन पूर्ण मोक्षफल पाऊँ।।
मनोगुप्ति ही मनवश कर्ता । सर्व शुभाशुभ आम्रवहर्ता ।।८।। ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिधारकमुनिराजाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मध्यान के अर्घ्य सजाऊँ। पद अनर्घ्य अविनश्वर पाऊँ।।
मनोगुप्ति ही मनवश कर्ता । सर्व शुभाशुभ आसवहर्ता ।।९।। ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
महाऱ्या
(सार जोगीरासा) मन की चंचलताएँ रोकँ शक्ति पूर्वक स्वामी। मन की ओर उपयोग न जाए बल दो अन्तर्यामी ।।१।। मोह राग द्वेषादि जीत लूँ निज में रहूँ व्यवस्थित । मनोगुप्ति अचलित हो पावू हो स्वरूप में सुस्थित ।।२।। सत्य, असत्य, उभय, अनुभय, चारों मनयोग तजूं मैं। निज स्वरूप का दर्शन करके निज को सदा भजूं मैं ।।३।। समकित के बिन जप तप संयम व्रत सब शून्य कहाते।। समकित के बिन ये अनाथ हैं रंच न हित कर पाते ।।४।। जप तप व्रत संयम के पहले समकित अंगीकार करूँ।। फिर इनका बल लेकर के प्रभु अष्टकर्म संहार करूँ।।५।। बिन समकित जप तप सब झूठे झूठा सारा संयम। रत्नत्रय भी इसके बिन, है मोक्षमार्ग में अक्षम ।।६।। समकित के बिन ज्ञान सुफल का प्रादुर्भाव न होता।। समकित के बिन तो चेतन का शुद्ध स्वभाव न होता ।।७।।
(दोहा) महा अर्घ्य अर्पण करूँ, मनोगुप्ति सुखदाय ।
इसके बिन शिवमार्ग में, साधक है असहाय ।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीमनोगुप्तिधारक मुनिराजाय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(मानव) द्रुम-द्रुम शहनाई गूंजी समकित की लहर उठी रे। सम्यग्ज्ञानी को अब तो निज की ही हक उठी रे ।।१।। ज्ञानी अलिप्त है पर से वह तो है ज्ञानस्वभावी। पर मात्र जानता रहता निज को परद्रव्य अभावी ।।२।। कांदय से मत जुड़ तू स्वयमेव झरेंगे फल दे। नूतन न बंध फिर होगा जाएँगे तुझको बल दे ।।३।। शुभ-अशुभ भेद मतकर तू दोनों ही बंधन कारक। अपने ही भीतर रह तू, तू तो है सदा अकारक ।।४।। निज गुण मणि सज्जा से सज शक्तियाँ प्रकटकर अपनी। नैराश्यभावना तज दे तेरी तो द्युति है अपनी।।५।। चैतन्य स्वभाव रूप से उपलब्धमान ज्ञानी को। असमर्थ सदा अनुभव में मिलता कब अज्ञानी को।।६।। अनुभवगोचर है आत्मिकसुख प्रतिपल हर प्राणी को। आनन्द अतीन्द्रिय पूरा मिलता सम्यग्ज्ञानी को ।।७।।
(वसंततिलका) शुद्धात्मतत्त्व मेरा महिमामयी है। कैवल्यज्ञान स्वामी गरिमामयी है।। आनन्दसिन्धु अनुपम इसमें भरा है।
अपूर्ण सौख्य सागर भवदुःखजयी है।। ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिधारक मुनिराजाय जयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
(वीर) मनोगुप्ति की पूजन की है मैंने महाहर्ष से आज । सिद्धों का लघुनन्दन बनकर पाऊँगा मैं निजपद राज ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगम्बरवेश ।।
पुष्पांजलिं क्षिपेत्
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