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________________ रत्नत्रय विधान आस्रव बंध सर्व क्षय कर दूंपाऊँ निज सिद्धत्व प्रकाश। आत्मशक्ति की प्रबल भक्ति से मुक्तिभवन में करूँ निवास।।१२।। पंचमगति पाने को उत्तम विधि रत्नत्रय श्रेष्ठ महान । इसे धारने वाले ही पाते हैं शिवसुखमय निर्वाण ।।१३।। मैं परमात्मा हूँ यह दृढ़निश्चय करके रत्नत्रय धारूँ। रत्नत्रय की प्राप्ति हेतु प्रभु तन मन धन सब कुछ वारूँ।।१४।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीतीनगुप्तिधारक मुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। (वीर) तीनगप्ति की पूजन करके पाऊँ निज की शद्ध सवास । वसुप्रवचन मातृका धारकर निज आत्मा में करूँ निवास ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगम्बरवेश ।। पुष्पांजलिं क्षिपेत् २८. श्री मनोगुप्तिधारक मुनिराज पूजन (चौपई) मनोगप्ति धारूँ जिनराज। आत्मलीनता का है काज ।। मन चंचलता दूर करूं। मन के सकल विकार हरूँ।। अपना हृदय बनाऊँ शुद्ध । हो जाऊँ मैं परम विशुद्ध ।। मनोगुप्ति पूजनकर नाथ । मन को वश कर बन स्वनाथ ।। ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिधारकमुनिराज अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिधारकमुनिराज अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिधारकमुनिराज अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (मानव) धर्मध्यान का ही जल लाऊँ । जन्म जरादिक दोष मिटाऊँ। मनोगुप्ति ही मनवश कर्ता । सर्व शुभाशुभ आम्रवहर्ता ।।१।। ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिधारकमुनिराजाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। धर्मध्यान का ही चंदन लूँ । चिर संतापताप क्षयकर लूँ ।। मनोगुप्ति ही मनवश कर्ता । सर्व शुभाशुभ आस्रवहर्ता ।।२।। ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिधारकमुनिराजाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। धर्मध्यान के निज अक्षत गुण । नाश सर्व कर देते दुर्गुण ।। मनोगुप्ति ही मनवश कर्ता । सर्व शुभाशुभ आम्रवहर्ता ।।३।। ॐ हीं श्री मनोगुप्तिधारकमुनिराजाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा। धर्मध्यान की ही कुसुमांजलि । कामभाव नाशकपुष्पांजलि।। मनोगुप्ति ही मनवश कर्ता । सर्व शुभाशुभ आसवहर्ता ।।४।। ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिधारकमुनिराजाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । धर्मध्यान के ही चरु लाऊँ । क्षुधारोग दुःख पर जय पाऊँ।। मनोगुप्ति ही मनवश कर्ता । सर्व शुभाशुभ आस्रवहर्ता ।।५।। ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिधारकमुनिराजाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। भजन राग का राग मुझे रास नहीं आता है। इसके नाशे बिना प्रकाश नहीं आता है।।१।। ये अकल्याण के लाने में अग्रणी पूरा । जो भी करता है इसे घोर कष्ट पाता है।।२।। जो इसे नष्ट करके प्राप्त करता है समकित । वही तो मोक्ष की मंजिल सदैव पाता है।।३।। निज की छाया में प्राप्त करता है जो रत्नत्रय। वही तो सिद्ध बनके मुक्ति सौख्य पाता है ।।४।। 64
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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