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रत्नत्रय विधान
श्री तीनगुप्तिधारक मुनिराज पूजन
शुद्धात्म ध्यान तरुवर के फल श्रेष्ठ मोक्षफल दाता। निर्भार अतीन्द्रिय सुखप्रद पूर्णोदय रवि विख्याता ।। त्रयगुप्ति साधना समकित बिन कभी नहीं होती है।
ग्रीवक तो मिल सकता है पर मुक्ति नहीं होती है।।८।। ॐ ह्रीं श्री तीनगुप्तिधारकमुनिराजाय महामोक्षप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्धात्म ध्यान के वसुगुणमय अर्घ्य अनूप बनाऊँ। ध्रवपद अनर्घ्य निजपाकर निज शाश्वत सौख्य सजाऊँ।। त्रयगुप्ति साधना समकित बिन कभी नहीं होती है।
ग्रीवक तो मिल सकता है पर मुक्ति नहीं होती है ।।९।। ॐ ह्रीं श्री तीनगुप्तिधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
महाऱ्या
(वीर) आत्मभान पूर्वक आत्मा में सतत लीन होना है गप्ति । मनवच काय अरु भोग-उपभोग प्रवृत्ति रोकना निश्चय गुप्ति ।।१।। भले प्रकार योग का निग्रह करना ही है उत्तम गुप्ति । मन वच तन की चंचलता को सदा रोकना ही है गप्ति ।।२।। रागादिक भावों से अपनी आत्मा की रक्षा करना। निर्विकल्प अपने स्वरूप में सदा गुप्त हो दुःख हरना ।।३।। निज अखंड अद्वैत परम चिद्रप स्वात्मा में स्थित हो। सब संकल्प विकल्प छोड़ निज समता गृह में सुस्थित हो ।।४।। वसप्रवचनमातृका श्रेष्ठ ही पंचसमिति त्रयगप्ति महान।। इन्हें धार शिवभूति सुमुनि ने प्राप्त किया निज पद निर्वाण ।।५।। मैं भी ऐसा यत्न करूँ प्रभु इन्हें धार शिवपद पाऊँ। अंतरंग-बहिरंगगुप्ति त्रय पालूँ निज को ही ध्याऊँ ।।६।। मनोयोग में चार जीत लूँ वचनयोग भी जीतूं चार । काययोग सातों भी जीतूं जीतू पंद्रह भलीप्रकार ।।७।।
(दोहा) महा अर्घ्य अर्पण करूँ तीनगुप्ति उर धार ।
निज स्वरूप में गुप्त हो पाऊँ पद अविकार ।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीतीनगुप्तिधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(दोहा) तीनगुप्ति धारण करूँ, करूँ स्वयं में वास । आप कृपा से हे प्रभो, पाऊँ मुक्तिनिवास ।। स्वाध्याय की भावना, जागे हृदय महान । दिव्यध्वनि कीस्वध्वनि सुन, करूँ प्रभोकल्याण ।।
(वीर) जिन आगम का सार जानकर जागे रत्नत्रय मंतव्य । मुक्तिप्राप्ति का सतत यत्ल करना ही हो सबका कर्त्तव्य ।।१।। पंचमहाव्रत पंचसमिति त्रयगुप्ति त्रयोदशविध चारित्र । इसको धारण करके प्राणी हो जाते हैं पूर्ण पवित्र ।।२।। गुणस्थान चौदह सब जानूँ क्रम-क्रम चौदहवाँ लाऊँ। हो अयोग केवली जीत चौदहवाँ सिद्ध स्वपद पाऊँ॥३॥ सभी मार्गणा चौदह जानूँ इनसे भी मैं जाऊँ रीत । चौदह जीवसमास जानकर इन सबके भी लूँ मैं जीत ।।४।। भय मैथुन आहार परिग्रह चारों संज्ञाएँ जीतूं। पंचपरावर्तन से स्वामी सदा-सदा को ही रीतू ।।५।। कोटि-कोटि कुल त्यागें स्वामी त्याDयोनि चुरासी लाख। इकशत पापप्रकृति अरु अङ्सठपुण्यप्रकृतियाँ कर दूंराख६।। सातों समुद्घात मैं जानूँ केवलिसमुद्घात पाऊँ। मुक्तिप्राप्ति का सतत यत्न करना ही हो सबका कर्तव्य ।।७।। आर्त्तरौद्र ध्यानों को छोड़ें धर्म शुक्ल पा बनूँ स्वनाथ । क्षय पच्चीस कषायें कर दूं अकषायी हो जाऊँ नाथ ।।८।। पंचवर्गणाएँ भी त्यागूं पंचशरीर त्याग दूं नाथ। नव क्षायिकलब्धियां प्राप्तकर बन जाऊँमैनाथ स्वनाथ ।।९।। मिथ्यात्वादिक पाँचों प्रत्यय सब ही क्षयकरके मानूँ। सैंतालीसनयों को समझू सैंतालीसशक्ति जानूँ ।।१०।। द्रव्यास्रव दो, भाव आस्रव पाँच त्यागकर बनूँ प्रवीण। द्रव्यबंध चारों ही त्यारों भावबंध भी त्यागूं तीन ।।११।।
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