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________________ २७. श्री तीनगुप्तिधारक मुनिराज पूजन (ताटक) मोक्षमार्ग में तीनगुप्ति का संबल है बहु सुखदायी। यह संसार भाव क्षयकर्ता जो भव-भव तक दुःखदायी।।१।। मनोगुप्ति बिन व्रतशीलादिक पालन करना निष्फल है। मनोगुप्तिधारी मुनि होते सच्चे मन से निर्मल हैं।।२।। वचनगुप्ति से ही असत्य की निवृत्ति होती है परिपूर्ण । परम सत्य की प्रवृत्ति ही है एकमात्र सुखप्रद सम्पूर्ण ।।३।। कायगुप्तिधारी ही होते करुणा के समुद्र मुनिराज । परम जितेन्द्रिय परम अहिंसक होकर पाते निज पदराज ।।४।। रत्नत्रय की भक्तिपूर्वक तीनगुप्ति सम्यक् धारूँ। परम श्रेष्ठ निर्वाणभक्ति पा भवसागरदुःख निर्वारूँ।।५।। (दोहा) तीनगुप्ति पूजन करूँ, अपने में हो गुप्त । परम संयमी बनूँ प्रभु, राग-द्वेष कर लुप्त ।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीतीनगुप्तिधारकमुनिराज अत्र अवतर अवतर संवौषट्। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीतीनगुप्तिधारकमुनिराज अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीतीनगुप्तिधारकमुनिराज अत्र मम सन्निहितो भव भववषट्। (मानव) निज अनुभवरस नीर चढ़ाऊँ हृदय विवेक जगाऊँ। जन्मादि रोग क्षय के हित निज में ही चरण बढ़ाऊँ ।। त्रयगप्ति साधना समकित बिन कभी नहीं होती है। ग्रीवक तो मिल सकता है पर मुक्ति नहीं होती है ।।१।। ॐ हीं श्री तीनगुप्तिधारकमुनिराजाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । श्री तीनगुप्तिधारक मुनिराज पूजन शुद्धात्म ध्यान चंदन की महिमा उर में आयी है। संसारताप क्षय करने की सुरुचि हृदय भायी है।। त्रयगुप्ति साधना समकित बिन कभी नहीं होती है। ग्रीवक तो मिल सकता है पर मुक्ति नहीं होती है।।२।। ॐ ह्रीं श्री तीनगुप्तिधारकमुनिराजाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा । शुद्धात्म ध्यान के अक्षत अक्षयपद दाता उत्तम । भवसागर तर जाने को जग विख्याता सर्वोत्तम ।। त्रयगुप्ति साधना समकित बिन कभी नहीं होती है। ग्रीवक तो मिल सकता है पर मुक्ति नहीं होती है ।।३।। ॐ ह्रीं श्री तीनगुप्तिधारकमुनिराजाय संसारतापविनाशनाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। शुद्धात्म ध्यान उपवन के पुष्पों को हृदय सजाऊँ। चिर कामवासना पीड़ा विनशा सशील हो जाऊँ।। त्रयगुप्ति साधना समकित बिन कभी नहीं होती है। ग्रीवक तो मिल सकता है पर मुक्ति नहीं होती है ।।४।। ॐ ह्रीं श्री तीनगुप्तिधारकमुनिराजाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। शुद्धात्म ध्यानरस निर्मित नैवेद्य बनाऊँ स्वामी। भवव्याधि क्षुधा को क्षयकर सुख पाऊँ अन्तर्यामी ।। त्रयगुप्ति साधना समकित बिन कभी नहीं होती है। ग्रीवक तो मिल सकता है पर मुक्ति नहीं होती है।।५।। ॐ ह्रीं श्री तीनगुप्तिधारकमुनिराजाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। शुद्धात्म ध्यान के दीपक ज्योतिर्मय हृदय जगाऊँ। अज्ञानतिमिर भ्रम क्षयकर कैवल्यज्ञान प्रकटाऊँ ।। त्रयगुप्ति साधना समकित बिन कभी नहीं होती है। ग्रीवक तो मिल सकता है पर मक्ति नहीं होती है ।।६।। ॐ ह्रीं श्री तीनगुप्तिधारकमुनिराजाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। शुद्धात्म ध्यान की निरुपम निज धूप ध्यानमय लाऊँ। वसुकर्म समुद्र विनायूँ पद नित्य निरंजन पाऊँ ।। त्रयगुप्ति साधना समकित बिन कभी नहीं होती है। ग्रीवक तो मिल सकता है पर मुक्ति नहीं होती है ।।७।। ॐ ह्रीं श्री तीनगुप्तिधारकमुनिराजाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 62
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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