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________________ रत्नत्रय विधान श्री प्रतिष्ठापनसमितिधारक मुनिराज पूजन ____१२१ निज अनुभव के सुतरु उगाकर महामोक्षफल पाऊँ। शिवसुख सुधा सरोवर पाऊँ मंगलमय हो जाऊँ।। प्रतिष्ठापनासमिति पालकर हे प्रभु निज में आऊँ। प्रासुक भू पर तन मल त्यागूं परम शान्ति प्रभु पाऊँ ।।८।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीप्रतिष्ठापनासमितिधारकमुनिराजाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। शुद्ध स्वानुभव सम्यक विधि के अर्घ्य अपर्व बनाऊँ। पद अनर्घ्य अविलम्ब प्रकटकर ध्रुवधामी बन जाऊँ।। प्रतिष्ठापनासमिति पालकर हे प्रभु निज में आऊँ। प्रासुक भू पर तन मल त्यागें परम शान्ति प्रभु पाऊँ ।।९।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीप्रतिष्ठापनासमितिधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। महाऱ्या (उपजाति) पालन प्रतिष्ठापनासमिति का, मुनिराज का है कर्त्तव्य पावन । तब भक्ति रत्नत्रय शुद्ध होती, मुनिराज बनते आनंद के घन।। (चौपई) निश्चय रागद्वेष मल त्याग । पाऊँ ध्रुव चारित्र पराग ।। साम्यभाव रस निज सुखदाय । विषयभाव पूरा दुःखदाय ॥१॥ समकित के हैं दोष पच्चीस । देते हैं भव-भव तक टीस ।। इन्हें नष्ट करके मतिमान । समकित पाते महिमावान ।।२।। आठ अंगयुत सम्यग्ज्ञान । करता है सबका कल्याण ।। तेरहविध सम्यक्चारित्र। महासौख्यदाता सुपवित्र ।।३।। ये ही है रत्नत्रययान। इससे ही मिलता निर्वाण ।। पंचसमितियों का शृंगार । त्वरित करो हो लो अविकार ।।४।। पुण्य-पाप करके परिहार । निजसुख पाओ अपरंपार ।। (दोहा) महा अर्घ्य अर्पण करूँ, धारूँ स्वपर विवेक। प्रतिष्ठापनासमिति धर, पाऊँ गुण प्रत्येक ।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीप्रतिष्ठापनासमितिधारक मुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (विधाता) विभावी भाव करके जो कर्म के बंध करता है। उदय जब कर्म आते हैं तो उनको उर में धरता है ।।१।। दुःखी होता है कर्मों से सुखी होता न कर्मों से। नरक पशुगति में जाता है स्वर्ग में देह धरता है ।।२।। एक दिन स्वर्ग से गिरता अधोगति में ये जाता है। भाग्य से फिर मनुज भव पा कर्म खोटे ही करता है ।।३।। परावर्तन ये करता है सदा पाँचों महादुःखमय । नहीं घबराता है इनसे पुनः ये बंध करता है ।।४।। अगर निज को निरख ले ये तनिक निज को परख ले ये। तो सम्यग्ज्ञान पाते ही भवोदधि दुक्ख हरता है ।।५।। अगर मिल जाय रत्नत्रय समिति सम्यक् सतत् पाले। तो त्रिभुवन का तिलक बनकर मुक्तिसुख उर में भरता है।।६।। अगर निर्वाणसुख चाहो तो कर लो ध्यान सम्यक् अब । जिनागम घोषणा पूर्वक यही जयघोष करता है ।।७।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीप्रतिष्ठापनासमितिधारक मुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। (वीर) आज समिति आदाननिक्षेपण की पूजनकर हर्ष हुआ। धर्म अहिंसा पालन की विधि जानी निज उत्कर्ष हुआ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगम्बरवेश ।। पुष्पांजलिं क्षिपेत् 61
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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