________________
११६
रत्नत्रय विधान
सदा पालूँ प्रभो सम्यक् समिति आदाननिक्षेपण । उठाऊँ या धरूँ वस्तु प्रमादों से रहित उस क्षण ।। ९ ।। ॐ ह्रीं श्री आदाननिक्षेपणसमितिधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
महार्घ्य (वीर )
पिछी कमंडल शास्त्र आदि उपकरण उठाऊँ धरूँ सम्हार । धर्म अहिंसा पालूँ प्रतिपल बनूँ अहिंसक परम उदार ।। १ ।। दयाभाव का अधिपति बनकर करुणा का समुद्र पाऊँ । समिति पूर्ण आदाननिक्षेपण पालूँ निज आतम ध्याऊँ ।। २ ।। व्रतियों के व्रत धारण का फल मात्र समाधिमरण विख्यात । कोई भी व्रत भंग न हो प्रभु आत्मध्यान ही हो प्रख्यात ।। ३ ।। क्रम-क्रम काय कषाय कृश करूँ परिषह बाईसों जीतूं । उपसर्गों पर भी जय पाऊँ राग-द्वेष से मैं रीतूं । । ४ । । उदय असातावेदनीय का सतत असाता लाता है। अगर असाता उपशम हो तो नश्वर साता पाता है ।।५।।
अतः कषायों को कृश करना अभ्यंतर कर्त्तव्य महान् । तथा बाह्य में कायाकृश करना ही है निज कार्य प्रधान ॥ ६ ॥ इसप्रकार जय कषाय होती अकषायी बनता प्राणी । अकषायी बनते ही प्राणी हो जाता केवलज्ञानी ।।७।। ( दोहा )
महाअर्घ्य अर्पण करूँ, चौथी समिति महान ।
आत्मध्यान में रत रहूँ, करूँ कर्म अवसान ।।
ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयी आदाननिक्षेपणसमितिधारक मुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला ( दिग्पाल )
रागादिभाव मेरा कुछ कर नहीं सकते हैं । सारे ही राग मिलकर छू भी नहीं सकते हैं ॥ १ ॥
59
श्री आदाननिक्षेपणसमितिधारक मुनिराज पूजन
चैतन्यतत्त्व हूँ मैं संसार से निराला । गुण हैं अनंत मेरे ये हर नहीं सकते हैं ||२|| आनन्दघन हूँ मैं तो चिन्मय हूँ शुद्धचेतन । मेरे स्वभाव का ये कुछ कर नहीं सकते हैं । । ३ ॥ जो वीतरागी मुनि हैं निज ज्ञान ध्यानरत हैं । संवर के जो हैं स्वामी वे डर नहीं सकते हैं ||४||
११७
जो राग में उलझे हैं आस्रव का गरल पीते । कितने भी व्रत करें वे पर तर नहीं सकते हैं ।।५।। ज्ञानी के आत्मनभ में उमड़े हैं मेघ रसमय । अज्ञानी के अंतर में वे झर नहीं सकते हैं || ६ || रत्नत्रयी बने बिन आस्रव नहीं रुकता है। ये पुण्य-पाप पल भर भी हर नहीं सकते हैं ||७|| आनन्द अतीन्द्रिय का सागर है निज के अन्दर । अपने स्वघट में अज्ञान तो भर नहीं सकते हैं ||८|| जब तक है आयु का बल जीवन भी है तभी तक । बिन आयु अंत कोई भी मर नहीं सकते हैं || ९ || कल्याण चाहते हो तो बनो शुद्ध ज्ञायक । ज्ञायक बने बिना हम कुछ कर नहीं सकते हैं ।। १० ।।
ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयी आदाननिक्षेपणसमितिधारक मुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
( वीर )
आज समिति आदाननिक्षेपण की पूजनकर हर्ष हुआ ।
धर्म अहिंसा पालन की विधि जानी निज उत्कर्ष हुआ ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूं दिव्य दिगम्बरवेश ।। क्षिपेत्
卐