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रत्नत्रय विधान
अब प्रभु द्वंद्व-फंद रहा नहीं कुछ शेष,
शुद्ध सम्यक्त्व लेके अपना भला किया। जो भी संसार भाव था अनादिकाल से ही, उसको भी ध्यानशक्ति से मैंने जला दिया ।।२।।
(वीर) पंचमहाव्रत, पंचसमिति, त्रयगुप्ति, त्रयोदशविध चारित्र । सम्यग्दर्शन पूर्वक ही ये होते हैं परमार्थ पवित्र ।।१।। तीन चौकड़ी युत कषाय का जब अभाव हो जाता है। तब ही मुनि निग्रंथ स्वरूपी महाव्रती हो जाता है ।।२।। शेष संज्ज्वलन ही रहती है सूक्ष्म लोभ दसवें तक ही। इसका भी अभाव हो जाता क्षीणमोह थल पाते ही ॥३॥ निश्चय रत्नत्रय बिन होता कभी नहीं सच्चा व्यवहार । इसके बिन व्यवहाराभास कहाता है सारा व्यवहार ।।४।। जिसने रत्नत्रय को धारा उसने ही पाया शिवपंथ । दर्शन ज्ञान चारित्र धारकर हो जाता है मुनि निग्रंथ ।।५।। वही मोक्षमार्गी बन करके करता कर्मों का अवसान । सर्व कर्म से रहित दशा पा होता परम सिद्ध भगवान ।।६।। भेद नहीं ज्ञायक में होता मात्र भेद कथनी उपचार।
ज्ञायक तो केवल ज्ञायक है ज्ञायक ही जाता भवपार ।।७।। ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रयधर्माय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रय की पूजन करके हो जाऊँ स्वामी अविकार । निश्चय रत्नत्रय धारूँ मैं पालूँ रत्नत्रय व्यवहार ।। रत्नत्रयमंडल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगम्बरवेश ।।
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् )
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३. श्री सम्यग्दर्शन पूजन
(ताटंक) भेदज्ञान पूर्वक जब सम्यग्दर्शन उर में आता है। भव-भव के पातक क्षय होते मिथ्याभ्रम नश जाता है।। क्रूर मोह मिथ्यात्व नाश हित सम्यग्दर्शन पाऊँगा।
सम्यग्दर्शन की पूजन कर निजस्वभाव में आऊँगा ।। ॐ ह्रीं श्री धर्ममूल-अष्टांगसम्यग्दर्शन अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री धर्ममूल-अष्टांगसम्यग्दर्शन अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री धर्ममूल-अष्टांगसम्यग्दर्शन अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
(राधिका) निश्चय जल का ही प्रतिपल पान करूँ प्रभु। मिथ्यात्व मोह की छाया नाश करूं विभु ।। जन्मादि रोग त्रय नाश करूं हे स्वामी।
सम्यग्दर्शन पाऊँ हे अन्तर्यामी ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
निश्चय अक्षत गुण अंतरंग में लाऊँ। कर प्राप्त स्वरूपाचरण स्वयं को ध्याऊँ।। संसारतापज्वर नाश करूँ हे स्वामी।
सम्यग्दर्शन पाऊँ हे अन्तर्यामी ।।२।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
निश्चय अक्षत गुण अंतरंग में लाऊँ।
आनन्द अतीन्द्रिय की तरंग प्रभु पाऊँ।। निज अखंड अक्षयपद पाऊँ हे स्वामी।
सम्यग्दर्शन पाऊँ हे अन्तर्यामी ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।