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________________ रत्नत्रय विधान समुच्चय पूजन अष्ट अंगयुत सम्यग्दर्शन अष्ट भेदयुत सम्यग्ज्ञान । तेरहविध चारित्र युक्त ही रत्नत्रय है धर्म महान ।।७।। ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रयधर्माय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। दर्शन ज्ञान चरित्रमयी तरुवर के फल शिवसुखदाता। महामोक्षफल प्रदान करते भवसमुद्र दुःख के घाता।। अष्ट अंगयुत सम्यग्दर्शन अष्ट भेदयुत सम्यग्ज्ञान । तेरहविध चारित्र युक्त ही रत्नत्रय है धर्म महान ।।८।। ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रयधर्माय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। दर्शन ज्ञान चरित्रमयी अर्यों के पुञ्ज बनाऊँगा। पद अनर्घ्य अविनश्वर पाकर सर्वोत्तम सुख पाऊँगा।। अष्ट अंगयुत सम्यग्दर्शन अष्ट भेदयुत सम्यग्ज्ञान। तेरहविध चारित्र युक्त ही रत्नत्रय है धर्म महान ।।९।। ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रयधर्माय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। रत्नत्रय अावलि (दोहा) सम्यग्दर्शन बिन नहीं, स्वपर भेद-विज्ञान । रत्नत्रय का मूल यह, महिमामयी महान ।।१।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। सम्यग्ज्ञान बिना नहीं, होता निज पर बोध । केवलज्ञान महान को, लेता है यह गोद ।।२।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। बिन सम्यक् चारित्र के, मुक्ति असंभव मान । तेरहविध चारित्र ही, मंगलमय शिवयान ।।३।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। निज रत्नत्रयधर्म ही, परम सौख्यदातार । मंगलमय विज्ञान यह, कर देता भवपार ।।४।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रस्वरूप रत्नत्रयधर्माय अनर्घ्यपदप्राप्तये पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। महाऱ्या (चौपई) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान । दृढ़ सम्यक्चारित्र महान ।। ये ही है रत्नत्रययान । दाता परम सौख्य निर्वाण ।।१।। अष्ट अंगयुत समकित शुद्ध । अष्ट भेदयुत ज्ञान विशुद्ध ।। तेरहविध चारित्र प्रधान। शुद्धभावना हो भगवान ।।२।। धर्मध्यान निज के अनुकूल । शुक्लध्यान का है यह मूल ।। ये ही है संयम का स्रोत । शुद्धभाव से ओतप्रोत ।।३।। यही स्वरूपाचरण पवित्र । ये ही यथाख्यात चारित्र ।। जो भी लेते इसको धार। वे जाते हैं भव के पार ।।४।। हम भी धारण करें महान । निज कल्याण करें भगवान ।। निश्चय पंचमहाव्रत धार । पंचसमिति पालें अविकार ।।५।। मन वच तन त्रयगुप्ति सँवार । ये तेरहविध चारित्र सार ।। मुनि बनकर पाले निर्दोष । निज स्वभाव में हो संतोष ।।६।। यह रत्नत्रय श्रेष्ठविधान । दाता उत्तम सौख्य महान ।। परम श्रेष्ठ मंगलमय भव्य । इसे न पाते कभी अभव्य ।।७।। (दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, रत्नत्रय को आज । रत्नत्रय की भक्तिकर, पाऊँ निजपदराज ।। ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रयधर्माय अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (सवैया) पर परिणति से तो पीछा छुड़ाने के लिए, निज परिणति को पास में बुला लिया। पहले मिथ्यात्व मोह नष्ट किया मैंने प्रभु, जितना था राग-द्वेष सबको गला दिया ।।१।।
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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