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२. समुच्चय पूजन
( कुण्डलिया )
रत्नत्रय निज धर्म है, महामोक्ष दातार । जो भी इसको धारते, हो जाते भवपार ।।१।। हो जाते भव पार मुक्ति के पथ पर आकर । यथाख्यात चारित्र प्राप्ति हित निज को ध्याकर ।।२।। धर्मध्यान फिर शुक्लध्यान का लेकर आश्रय । पूर्ण सफलता पा लेते पाकर रत्नत्रय ||३|| ( दोहा ) भाव सहित पूजन करूँ, रत्नत्रय की आज । रत्नत्रय की कृपा से, पाऊँ निज पद राज || ४ || रत्नत्रय की नाव ही, करती भव से पार । रत्नत्रय की भक्ति ही, देती सौख्य अपार ||५|| ( ताटंक )
प्रभु रत्नत्रय को आह्वानन कर अंतर में पधराऊँ । रत्नत्रय सन्निकट होऊँ मैं पूजन कर ध्रुव सुख पाऊँ ॥ ६ ॥ निरतिचार रत्नत्रय पालूँ निज स्वरूप को ही ध्याऊँ । रत्नत्रय की निधि पाकर प्रभु आत्मशांति उर में लाऊँ ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूपरत्नत्रयधर्म अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूपरत्नत्रयधर्म अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूपरत्नत्रयधर्म अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
(वीर )
दर्शन ज्ञान चरित्रमयी सम्यक् जल का जो करते पान । जन्म- जरादिक नाश रोग त्रय हो जाते हैं वे भगवान ।।
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समुच्चय पूजन
अष्ट अंगयुत सम्यग्दर्शन अष्ट भेदयुत सम्यग्ज्ञान । तेरहविध चारित्र युक्त ही रत्नत्रय है धर्म महान ।। १ ।। ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रयधर्माय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । दर्शनज्ञान चरित्रमयी रत्नत्रय जो उर में धरते । भवातापज्वर क्षय कर देते भव-भव की पीड़ा हरते ।। अष्ट अंगयुत सम्यग्दर्शन अष्ट भेदयुत सम्यग्ज्ञान । तेरहविध चारित्र युक्त ही रत्नत्रय है धर्म महान ।।२।। ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रयधर्माय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। दर्शन ज्ञान चरित्रमयी अक्षत अनंत गुण के दाता। उत्तम पद की प्राप्ति कराते जो हैं त्रिभुवन विख्याता ।। अष्ट अंगयुत सम्यग्दर्शन अष्ट भेदयुत सम्यग्ज्ञान । तेरह विध चारित्र युक्त ही रत्नत्रय है धर्म महान ।। ३ ।। ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रयधर्माय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
दर्शन ज्ञान चरित्रमयी पुष्पों की मृदुल सुरभि अविकार । कामबाण पीड़ा विध्वंसक महाशील गुण की भंडार ।। अष्ट अंगयुत सम्यग्दर्शन अष्ट भेदयुत सम्यग्ज्ञान । तेरह विध चारित्र युक्त ही रत्नत्रय है धर्म महान ||४|| ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रयधर्माय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । दर्शन ज्ञान चरित्रमयी अनुभव रसमय चरु सुखदायी । क्षुधारोगज्वाला के नाशक शाश्वत सुख आनन्ददायी ।। अष्ट अंगयुत सम्यग्दर्शन अष्ट भेदयुत सम्यग्ज्ञान । तेरह विध चारित्र युक्त ही रत्नत्रय है धर्म महान ।। ५ ।। ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रयधर्माय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । दर्शन ज्ञान चरित्रमयी दीपक की ज्योति प्रकाशमयी । मिथ्यातम क्षय करती है यह देती ज्ञान विकासमयी ।। अष्ट अंगयुत सम्यग्दर्शन अष्ट भेदयुत सम्यग्ज्ञान । तेरह विध चारित्र युक्त ही रत्नत्रय है धर्म महान ||६|| ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रयधर्माय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । दर्शन ज्ञान चरित्रमयी निज ध्यानधूप भवदुःखहर्त्ता । अष्टकर्म विध्वंसक है यह परम ध्रौव्य शिवसुखकर्त्ता ।।