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________________ रत्नत्रय विधान निश्चय स्वपुष्प निज सुरभिमयी मैं लाऊँ। गुणशील लाख चौरासी हे प्रभु पाऊँ।। चिर कामबाण विध्वंस करूँ हे स्वामी। सम्यग्दर्शन पाऊँ हे अन्तर्यामी ।।४।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। निश्चय नैवेद्य स्वरस निर्मित प्रभु लाऊँ। परिपूर्ण निराहारी पद हे प्रभु पाऊँ ।। चिर क्षुधाव्याधि का नाश करूँ हे स्वामी। सम्यग्दर्शन पाऊँ हे अन्तर्यामी ।।५।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । निश्चय स्वज्ञान की जगमग ज्योति जगाऊँ। कैवल्यज्ञान की गरिमा मैं भी पाऊँ ।। मिथ्यात्व मोह अज्ञान मिटाऊँ स्वामी। सम्यग्दर्शन पाऊँ हे अन्तर्यामी।।६।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। निश्चय स्वधर्म की धूप ध्यानमय लाऊँ। पा धर्मध्यान फिर शुक्लध्यान ही ध्याऊँ ।। वसु मूलप्रकृति कर्मों की नायूँ स्वामी। सम्यग्दर्शन पाऊँ हे अन्तर्यामी ।।७।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। निश्चय स्वभाव तरु के पवित्र फल लाऊँ। ध्या अंतिम शुक्लध्यान मैं शिवपुर जाऊँ।। फल पूर्ण मोक्ष सर्वोत्तम पाऊँ स्वामी। सम्यग्दर्शन पाऊँ हे अन्तर्यामी ।।८।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । निश्चय स्वरूप का अर्घ्य गुणमयी लाऊँ। पाऊँ अनंत गुण परमामृत रस पाऊँ।। परमोत्तम पद अनर्घ्य पाऊँ हे स्वामी। सम्यग्दर्शन पाऊँ हे अन्तर्यामी ।।९।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । श्री सम्यग्दर्शन पूजन ॥ श्रीसम्यग्दर्शन अविलिम १. दशभेद सहित सम्यग्दर्शन (वीर) निमित्तादि की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के दस भेद । नहीं किसी की अपेक्षा है निश्चय से है सदा अभेद ।।१।। आर्ष, मार्ग, बीज, उपदेश, सूत्र, संक्षेप, अर्थ, विस्तार । समकित है अवगाढ़ और परमावगाढ़ दस भेद विचार ।।२।। जैसे भी हो जिसप्रकार हो सम्यग्दर्शन लूँ उर धार। यदि मरना भी पड़े मुझे तो मरकर भी पाऊँ अविकार ।।३।। ॐ ह्रीं श्री दशभेदसहितसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । २. अन्यायत्याग भूषित सम्यग्दर्शन (रोला) सम्यग्दृष्टि जीव सदाचारी होते हैं। पर जीवों की पीड़ा हर प्रमुदित होते हैं।। कभी नहीं अन्याय भाव आता है उर में। शुद्धभावना भाते रहते अभ्यंतर में ।।१।। ॐ ह्रीं श्री अन्यायत्यागगुणभूषितसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। ३. अनीतित्याग भूषित सम्यग्दर्शन वे अनीति से दूर सतत रहते निजपुर में। नीति पूर्वक रहते हैं वे ग्राम नगर में।। सदा जागृत शुद्धभावना भाते रहते। न्याय नीति से वे लौकिकसुख पाते रहते ।।२।। ॐ ह्रीं श्री अनीतित्यागगुणभूषितसम्यग्दर्शनाय अयं निर्वपामीति स्वाहा । ४. अभक्ष्ययाग भूषित सम्यग्दर्शन वे अभक्ष्य का भक्षण कभी नहीं करते हैं। भक्ष्यपदार्थों में भी वे विवेक रखते हैं।। जागरूक हो आत्मभावना भाते रहते। सपने में भी अभक्ष्यभक्षण नहीं वे करते ।।३।। ॐ ह्रीं श्री अभक्ष्यत्यागगुणभूषितसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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