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श्री भाषासमितिधारक मुनिराज पूजन
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रत्नत्रय विधान प्रभो भाषासमिति पालूँ मौन होकर सर्वदा ।
अगर बोलूँ तो स्वहित-मित-प्रिय वचन बोलूँ सदा ।।९।। ॐ ह्रीं श्री भाषासमितिधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
महाऱ्या
(उपजाति) कौतूहली बन मरकर भी चेतन, शुद्धात्मा निज अपनी परख लो। शाश्वत सुखों की यदि चाह है तो, अपने अनंतों गुण तुम निरख लो।।
(वीर) भाषासमिति पालने वाले ही होते हैं श्री मुनिराज । हित मित भाषा अथवा महामौनधारी होते ऋषिराज ।।१।। नहीं मोक्ष का राग हृदय में नहीं बंध के प्रति है द्वेष । निस्पह निर्ममत्व हैं सबसे बाह्यान्तर निग्रंथ स्ववेश ।।२।। सब प्रकार के अन्तराय को टाल लिया करते भोजन । तत्क्षण मौन वनों में जाते हो जाते निज ध्यान मगन ।।३।। कोई अर्घ्य उतारे गाली दे या असि से करे प्रहार। तो भी मुनिवर समभावी रह करते वस्तुस्वरूप विचार ।।४।। उत्तम मध्यम जघन्य करते केशलोच आगम अनुसार। प्रासुक भू पर रात्रिशयन कुछ अदंतधोवन ही श्रृंगार ।।५।। आदि-आदि गुण अनंत भूषित रत्नत्रयधारी महाराज। एक दिवस पा ही लेते हैं निज बल से ही निज पदराज ।।६।।
(दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, भाषासमिति महान ।
महामौन गुण प्राप्तकर, करूँ आत्मकल्याण ।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीभाषासमितिधारकमुनिराजाय महाय॑ निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(मानव) कल्याण चाहते हो तो हित मित प्रिय भाषा बोलो। हितकारी साम्यभावरस अपने अंतर में घोलो ।।१।।
रागादिभाव से बचकर रहना तुम मेरे चेतन । पर परिणति के बहकावे में तुम मत आना चेतन ।।२।। निज परिणति के कहने में तुम चलना सतत् निरंतर । सम्यक्त्वभावना भाना उर भेदज्ञान ही दृढ़ कर ।।३।। जब समकितनिधि मिल जाए तो निज का अनुभव करना। चारित्र स्वरूपाचरणी अपने अन्तर में धरना ।।४।। फिर संयम का रथ आए तो उस पर झट चढ़ जाना। सप्तम-षष्टम में रहकर शिवपथ पर स्वरथ बढ़ाना ।।५।। श्रेणी चढ़ने की बेला का हो बहुमान हृदय में । तुम यथाख्यात पाओगे जाओगे आत्मनिलय में ।।६।। घातिया चार क्षय करके अरहंत दशा पा लोगे। फिर क्षय अघातिया भी कर निजसिद्ध स्वपद झेलोगे।।७।। जय-गान तुम्हारा गाएँगे इन्द्रादिक सुर किन्नर ।
बस एक बार तो कर लो रत्नत्रयभक्ति ध्यानधर ।।८।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीभाषासमितिधारकमुनिराजाय जयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा।
(वीर) भाषासमिति पूजकर मैंने जान लिया है मौन महत्त्व । धीरे-धीरे प्रभो अवतरित हो जाएगा शुद्ध समत्व ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगम्बरवेश ।।
पुष्पांजलिं क्षिपेत्
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