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________________ २४. श्री एषणासमितिधारक मुनिराज पूजन (चौपई) शद्ध एषणासमिमित प्रधान | पालन करते समनि महान ।। सुतप वृद्धि हित लें आहार । अन्तराय दोष सब टार ।। तजते उद्देशिक आहार । नहीं रसों के प्रति है प्यार ।। भोजन प्रासुक शुद्ध प्रशस्त । लेते तजकर राग समस्त ।। नहीं याचना करते भूल। छठे-सातवें झूला झूल ।। यही एषणा समिति विशुद्ध । पूजन करके बनूँ विशुद्ध ।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीएषणासमिमिधारकमुनिराज अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीएषणासमिमिधारकमुनिराज अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीएषणासमिमिधारकमुनिराज अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (मानव ) कैवल्यचंद्र से निर्मल जल पाऊँ आज सुपावन । जन्मादि रोगत्रय नारों निजपुर जाऊँ मनभावन ।। एषणासमिति पालूँ मैं सम्यक् हे अन्तर्यामी। टालूँ सब दोष छयालीस आहार हेत हे स्वामी ।।१।। ॐ ह्रीं श्री एषणासमितिधारकमुनिराजाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । कैवल्यचंद्र चंदन का नन्हा सा तिलक लगाऊँ। भवज्वर हर शीतलता को मैं अपने हृदय बसाऊँ ।। एषणासमिति पालूँ मैं सम्यक् हे अन्तर्यामी। टालूँ सब दोष छयालीस आहार हेतु हे स्वामी ।।२।। ॐ ह्रीं श्री एषणासमितिधारकमुनिराजाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। कैवल्यज्ञान अक्षत से क्षत भावमरण हो जाता। अक्षयपद मिल जाता है जिय आत्मशरण पा जाता।। श्री एषणासमितिधारक मुनिराज पूजन एषणासमिति पालूँ मैं सम्यक् हे अन्तर्यामी। टालूँ सब दोष छयालीस आहार हेत हे स्वामी ।।३।। ॐ ह्रीं श्री एषणासमितिधारकमुनिराजाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। जब केवलज्ञानपुष्प की ध्रुव गंध हृदय को भाती है। चिर काम नाश हो जाता आत्मा स्वशील पाती है।। एषणासमिति पालूँ मैं सम्यक हे अन्तर्यामी। टालूँ सब दोष छयालीस आहार हेतु हे स्वामी ।।४।। ॐ ह्रीं श्री एषणासमितिधारकमुनिराजाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । कैवल्यज्ञान के चरु ही चिर तृप्ति प्रदायक पावन । हैं क्षधारोग विध्वंसक गणधर ऋषि के मनभावन ।। एषणासमिति पालूँ मैं सम्यक हे अन्तर्यामी। टालँ सब दोष छयालीस आहार हेत हे स्वामी ।।५।। ॐ ह्रीं श्री एषणासमितिधारकमुनिराजाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। कैवल्यज्ञान के दीपक उर में प्रकाश भरते हैं। मिथ्यात्व मोहतम पूरा पलभर में ही हरते हैं। एषणासमिति पालूँ मैं सम्यक् हे अन्तर्यामी। टालूँ सब दोष छयालीस आहार हेत हे स्वामी ।।६।। ॐ ह्रीं श्री एषणासमितिधारकमुनिराजाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। कैवल्यज्ञान की पावन ध्यान धूप शिवदायी। वसूकर्म जला देती है जो हैं अनंत दु:खदायी।। एषणासमिति पालूँ मैं सम्यक हे अन्तर्यामी। टालूँ सब दोष छयालीस आहार हेतु हे स्वामी ।।७।। ॐ ह्रीं श्री एषणासमितिधारकमुनिराजाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। कैवल्यज्ञानतरु फल ही है महामोक्ष फलदाता। निज ज्ञानानंद स्वरूपी फल देते श्रुत विख्याता।। एषणासमिति पालूँ मैं सम्यक् हे अन्तर्यामी। टाल सब दोष छयालीस आहार हेतु हे स्वामी ।।८।। ॐ ह्रीं श्री एषणासमितिधारकमुनिराजाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। कैवल्यज्ञान अर्ध्यावलि है गुण अनंतमय उत्तम । पदवी अनर्घ्य देने में सम्पूर्णतया है सक्षम ।।
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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