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________________ २३. श्री भाषासमितिधारक मुनिराज पूजन (सोरठा) भाषासमिति विचार, मौन रहूँ स्वामी सदा। कर्कश भाषा हास्य, परनिन्दा पेशन्य' तज ।। वचनों के दस दोष, सभी पापसंयुक्त हैं। हित मित प्रिय वच शुद्ध, असंदिग्ध बोलूँ सदा।। पूजन करूँ विशुद्ध, भाषासमिति महान की। संशयनाशक शब्द, ही उचरूँ मुख से प्रभो ।। ॐ हीं श्री परमअहिंसामयीभाषासमिमिधारकमुनिराज अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीभाषासमिमिधारकमुनिराज अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीभाषासमिमिधारकमुनिराज अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (गीतिका) मोह क्षयकर्ता सुसम्यक् जल जिनागम से मिला। जन्म-मृत्यु-जरा विनाशक ज्ञानअम्बुज' उर खिला।। प्रभो भाषासमिति पालूँ मौन होकर सर्वदा। अगर बोलूँ तो स्वहित-मित-प्रिय वचन बोलूँ सदा ।।१।। ॐ ह्रीं श्री भाषासमितिधारकमुनिराजाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। मोहज्वाला विनाशक चंदन जिनागम से मिला। भवाताप विनाशकर्ता ज्ञानरवि उर में झिला।। प्रभो भाषासमिति पालूँ मौन होकर सर्वदा। अगर बोलूँ तो स्वहित-मित-प्रिय वचन बोलूँ सदा ।।२।। ॐ हीं श्री भाषासमितिधारकमुनिराजाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा । मोहक्षय के हेतु अक्षत गुण जिनागम से मिला। स्वपद अक्षय प्राप्त करने को स्वबल उर में खिला।। १. चुगली करना २. कमल श्री भाषासमितिधारक मुनिराज पूजन प्रभो भाषासमिति पालूँ मौन होकर सर्वदा। अगर बोलूँ तो स्वहित-मित-प्रिय वचन बोलूं सदा ।।३।। ॐ हीं श्री भाषासमितिधारकमुनिराजाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। मोहनाशक पुष्प पावन श्री गुरुवर से मिले। कामबाण विनाशकर्ता पूज्य मुनिवर भी मिले ।। प्रभो भाषासमिति पालूँ मौन होकर सर्वदा। अगर बोलूँ तो स्वहित-मित-प्रिय वचन बोलूं सदा ।।४।। ॐ हीं श्री भाषासमितिधारकमुनिराजाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । मोहनाशक सुचरु रसमय श्री गुरुवर से मिले। क्षुधारोग विनाशकर्ता पूज्य मुनिवर भी मिले ।। प्रभो भाषासमिति पालूँ मौन होकर सर्वदा। अगर बोलूँ तो स्वहित-मित-प्रिय वचन बोलूँ सदा ।।५।। ॐ हीं श्री भाषासमितिधारकमुनिराजाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। मोहनाशक स्वदीपक ज्योति गुरुवर से मिली। उसी क्षण कैवल्य पाने की सुबेला उर झिली।। प्रभो भाषासमिति पालूँ मौन होकर सर्वदा। अगर बोलूँ तो स्वहित-मित-प्रिय वचन बोलॅ सदा।।६।। ॐ हीं श्री भाषासमितिधारकमुनिराजाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । कर्मनाशक धूप पावन श्री गुरुवर से मिले। अष्टकर्म विनाश की विधि जिनेश्वर से ही मिली।। प्रभो भाषासमिति पालूँ मौन होकर सर्वदा। अगर बोलूँ तो स्वहित-मित-प्रिय वचन बोलूँ सदा ।।७।। ॐ ह्रीं श्री भाषासमितिधारकमुनिराजाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। मोहहर फल मुक्तिदाता श्री गुरुवर से मिली। मोक्षसौख्य प्रधान अधिपति प्रभु जिनेश्वर भी मिले ।। प्रभो भाषासमिति पालूँ मौन होकर सर्वदा। अगर बोलूँ तो स्वहित-मित-प्रिय वचन बोलूँ सदा ।।८।। ॐ ह्रीं श्री भाषासमितिधारकमुनिराजाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । मोहनाशक अर्घ्य की विधि श्री गुरुवर से मिली। पद अनर्घ्य महान पाने की कला उर में झिली।।
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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