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________________ १०४ रत्नत्रय विधान महाऱ्या (वीर) दिन में जूड़ाप्रमाण भू लख चलना ईर्यासमिति प्रधान । प्रासुक भू पर ही पग रखता होता कभी न असावधान ।।१।। तीर्थक्षेत्र निर्वाणक्षेत्र या गुरुदर्शन का जागे भाव । जागृत ईर्यासमिति पालकर लखता अपना आत्मस्वभाव ।।२।। केवल निज चैतन्य आत्मा ही है आराधन के योग्य। अन्य नहीं कोई भी है पर अपने आराधन के योग्य ।।३।। शुद्धआत्मा का चिन्तन ही केवल एक प्रशंसा योग्य । शुद्धआत्मा की उपासना ही मुक्ति प्राप्तिहित करने योग्य ।।४।। निज चैतन्य तेज उपमा से रहित निराकुल शुद्ध सदा। अवक्तव्य है स्वज्ञान गोचर पूर्ण ज्ञानमय शिवसुखदा ।।५।। समभावी सामायिक से ही होता जीवों का कल्याण। साम्यभाव ही मुक्तिभावना का है सर्वश्रेष्ठ सोपान ।।६।। जब भव से थकान लगती है तब होता तत्त्व विचार। देह भोग से उदासीनता ही तब होती है साकार ।।७।। (दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, ईर्यासमिति प्रधान । शुद्धज्ञान बल से प्रभो, पाऊँ पद निर्वाण ।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीईर्यासमितिधारकमुनिराजाय महायँ निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला (सोरठा) ईर्यासमिति प्रसिद्ध, परम अहिंसक है सदा। गाऊँ इसके गीत, जब तक मुनिपद ना मिले ।। (मानव वल्लभ ) सुन्दर प्रभात जागा है जीवन में पहली बार। समकित का सूर्य उगा है जीवन में पहली बार ।।१।। जपतपव्रतकिरणावलिसंगसंयमहीधूपसुहायी। अनुभवरसवाली धारा उर अंतर में लहरायी ।।२।। श्री ईर्यासमितिधारक मुनिराज पूजन निर्मल प्रकाश छाया है आयी है मृदुल बहार। सुन्दर प्रभात जागा है जीवन में पहली बार ।।३।। रत्नत्रयरूपी शिवपथ के मैंने दर्शन पाए। परिणतिनेपलकपाँवड़ेस्वागत मेंसहज बिछाए।।४।। अब देर न कुछ भी होगी हो जाऊँगा भवपार। सुंदर प्रभात जागा है जीवन में पहली बार ।।५।। इंद्रादिक शीश झुकाते दुंदुभियाँ देव बजाते। जितने हैं सिद्धसभी मिल शिवसुख से मुझेसजाते।।६।। आनंद अतींद्रिय सागर लहराता बारंबार । सुंदर प्रभात जागा है जीवन में पहली बार ।।७।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीईर्यासमितिधारकमुनिराजाय जयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। (वीर) पूजी ईर्यासमिति भाव से धर्म अहिंसक पाया शुद्ध । निज परिणामों को सँवारकर हो जाऊँगा परम विशुद्ध ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश। निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगम्बरवेश।। पुष्पांजलिं क्षिपेत् इन्द्रादि चक्रवर्ती के वैभव का तनिक न मान । यह तीन लोक की संपत्ति धूलि सम ली है जान ।। निर्भार अतीन्द्रिय चिद्घन आनंदमूर्ति छविमान । सुख-बलयुत सहजानंदी दर्शनमय ज्ञाननिधान ।। अपने स्वरूप का मुझको आया है निर्मल भान । माता मेरी जिनवाणी हैं पिता वीर भगवान ।। 53
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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