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________________ रत्नत्रय विधान २१. श्री पंचसमितिधारक मुनिराज पूजन मिथ्यात्व दुष्ट सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर का करता बन्ध । जो इसको क्षय करता उसको समकित मिलता पूर्ण अबन्ध ।।४।। अप्रत्याख्यानावरणीयुत क्रोध मान माया अरु लोभ । व्रत धारण करने में बाधक होती है यह भवदुःख क्षोभ ।।५।। जो उसको जय कर लेता है पाता एकदेशसंयम। अविरति जयकर हर्षित पाता उत्तम स्वर्गादिक बिन श्रम ।।६।। प्रत्याख्यानावरणीयुत जो क्रोध मान माया अरु लोभ । यह प्रमाद ना जाने देती यह भी देती भवदुःखक्षोभ ।।७।। जो इसको जय कर लेता है वो महाव्रती हो जाता है। पूर्ण देशसंयम पालन सर्वार्थसिद्धि तक जाता है।।८।। अगर संज्वलन कषाययुत है क्रोध मान माया अरु लोभ । क्षीण कषाय न होने देती नष्ट नहीं होता भवमोक्ष ।।९।। जो इसको जय कर लेता है मोह क्षीण फल पाता है। केवलज्ञान प्रगट करता है निजानंद उर लाता है।।१०।। (दोहा) अपरिग्रह व्रत धारकर, जीतू सर्व कषाय। चार चौकड़ी नष्ट कर, पाऊँ पद सुखदाय ।। ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराजाय जयमाला पूर्णार्य निर्वपामीति स्वाहा । (वीर) अपरिग्रह की पूजन कर मेरा मन हो गया प्रसन्न । पूर्ण अनिच्छुक बन कर स्वामी हो जाऊँ शिवसुख सम्पन्न ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उपदेश। निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगम्बरवेश ।। पुष्पांजलिं क्षिपेत् 卐 (वीर) पंचसमितियों का परमादर करना है मनि का कर्त्तव्य। परम अहिंसाधर्म पालने का यदि उर में है मन्तव्य ।।१।। पहली इर्यासमिति दूसरी भाषासमिति महासुखरूप । तृतीय एषणासमिति चतुर्थम आदाननिक्षेपण गुणरूप ।।२।। प्रतिष्ठापना समिति पाँचवी धर्म अहिंसा वृद्धिंकर । ये ही पाँचों समिति पालने में मुनिश्री रहते तत्पर ।।३।। मैं भी इनको पालन करने का अवसर हे प्रभु पाऊँ। भाव-द्रव्य पूजन करके प्रभु निज ज्ञायक को ही ध्याऊँ।।४।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीपंचसमितिधारकमुनिराज अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीपंचसमितिधारकमुनिराज अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीपंचसमितिधारकमुनिराज अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (सखी) संयम जलधारा लाऊँ। त्रयरोग सकल विनशाऊँ।। प्रभु पंचसमिति उर धारूँ। रागादिक दोष निवारूँ।।१।। ॐ हीं श्री पंचसमितिधारकमुनिराजाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। संयमचंदन उर लाऊँ। भवआतप पर जय पाऊँ।। प्रभु पंचसमिति उर धारूँ। रागादिक दोष निवारूँ।।२।। ॐ ह्रीं श्री पंचसमितिधारकमुनिराजाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। संयम के अक्षत पावन । अक्षयपद देते धन-धन ।। प्रभ पंचसमिति उर धारूँ। रागादिक दोष निवारूँ ।।३।। ॐ ह्रीं श्री पंचसमितिधारकमुनिराजाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। 50
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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