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रत्नत्रय विधान महाव्रतीमुनि अपरिग्रह से ही पहचाने जाते ।
अन्तर-बाह्य परिग्रह त्यागी ही निज शिवपद पाते ।।९।। ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
अध्यावलि चौदह अंतररंग परिग्रह रहित मुनिराज
(वीर) इक मिथ्यात्व, वेद तीन, हास्यादिक छह, क्रोधादिक चार । अंतरंग के यही परिग्रह चौदह घोर महादुःखकार ।। सभी परिग्रह अंतरंग के त्याD हे प्रभु भलीप्रकार ।
इनको त्यागे बिना न कोई भी मुनि होता है अविकार ।।१।। ॐ ह्रीं श्री अंतरंगचतुर्दशपरिग्रहविहीनअपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराजाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
दस बाह्य परिग्रह रहित मुनिराज क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, दास, दासी, पश,यान व शैय्यासन। वस्त्र तथा भोजन ये सब मिल बाह्य परिग्रह दस लो गिन ।। इनको त्यागे बिना दिगंबर मनि होता न कभी निग्रंथ ।
इनके प्रति कुछ राग न हो उर इन्हें त्याग पालो शिवपंथ ।।२।। ॐ हीं श्री बाह्यदशपरिग्रहविहीनअपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराजाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
समस्त चौबीस परिग्रह रहित मुनिराज अंतरंग के चौदह बाह्य परिग्रह दस त्यागी मुनिराज । सतत अनिच्छुक अपरिग्रही शक्ति से पाते निज पदराज ।। इन चौबीस परिग्रह के त्यागी होते हैं मुनि प्रत्येक।
उनको तो बस ध्यान योग्य है त्रैकालिक ध्रव आत्मा एक।।३।। ॐ ह्रीं श्री चतुर्विशन्तिपरिग्रहविहीनअपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराजाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
महाऱ्या
(दोहा) भवदुःखनाशक श्रेष्ठ है, अपरिग्रह की रीत। बनूँ अनिच्छुक हे प्रभो, सकल परिग्रह जीत ।।
श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारक मुनिराज पूजन
(मत्तसवैया-नई चाल में) मेरा चेतन अपने ही घर में बड़ी शान से देखो रहता है। निज अनुभवरस नित पीता है समरस सरिता में बहता है ।।१।। रागों का राग नहीं उर में, आस्रव का भाव नहीं उर में। संवर की महिमा से शोभित निर्जराभाव में रहता है ।।२।। मोहादि भाव जय कर लेगा कर्मादि रोग क्षय कर लेगा। आनन्द अतींद्रिय धारा पा अपने में हर्षित रहता है ।।३।। सारा संसार विनश्वर है तन धन यौवन भी नश्वर है। ध्रुव तो केवल है शुद्धात्मा यह चिंतन करता रहता है ।।४।। सम्यक् मुनिव्रत ये धारेगा अपनी छवि सतत निहारेगा। परिषह उपसर्गजयी बनकर दुखड़े सम होकर सहता है ।।५।। परद्रव्यों का राग नहीं परभावों में अनुराग नहीं। यह तो विभाव का त्यागी बन निज शुद्ध भाव ही गहता है ।।६।। यह मुक्तिभवन में जाएगा सिद्धों से ही बतियाएगा। भवभय रागों के महल सभी यह पलभर में ही ढहता है।।७।।
(दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, व्रत अपरिग्रह श्रेष्ठ ।
बनूँ अनिच्छुक हे प्रभो, तजूं परिग्रह नेष्ठ ।। ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
(वीर) अपरिग्रहधारी मुनिवर ही क्षय करते हैं चार कषाय । नौ कषाय अरु सोलह मिल पच्चीस भेद प्रतिक्षण दुःखदाय ।।१।। जब तक ये उर में रहती हैं तब तक होता ज्ञान नहीं । चार चौकडी नष्ट किए बिन होता केवलज्ञान नहीं ।।२।। अनंतानुबंधी कषाययुत क्रोध मान माया अरु लोभ । घोर अधोगति की दाता है मिलता भवदुःखदायी क्षोभ ।।३।।