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________________ २०. श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारक मुनिराज पूजन ( दोहा ) रत्नत्रयधारी सुमुनि, अपरिग्रह के नाथ । पूर्ण अनिच्छुक भाव से, बनते सुमुनि स्वनाथ ।। मैं भी अपरिग्रही बनूँ, इच्छाएँ दूँ त्याग । एकमात्र निज चैतन्य से ही हो अनुराग ।। अपरिग्रह पूजन करूँ, मूर्छा कर अवसान । तज चौबीसों परिग्रह, बनूँ सुमुनि गुणवान ।। ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराज अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराज अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराज अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ( जोगीरासा ) अपरिग्रह का नीर सुनिर्मल जन्म - मृत्यु दुःख हरता । इच्छाओं को जय करके मुनि आनंदामृत भरता ।। महाव्रतीमुनि अपरिग्रह से ही पहचाने जाते । अन्तर-बाह्य परिग्रह त्यागी ही निज शिवपद पाते ।। १ ।। ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराजाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । अपरिग्रह का शीतल चंदन ही भवताप विनाशक । इच्छाओं को जय करता है निर्मल स्वपर प्रकाशक ।। महाव्रतीमुनि अपरिग्रह से ही पहचाने जाते । अन्तर-बाह्य परिग्रह त्यागी ही निज शिवपद पाते ।।२।। ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराजाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा । अपरिग्रह के अनुपम अक्षत अक्षयपद के दाता। जो भी इनको पा लेता वह भवसागर तर जाता ।। 48 श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारक मुनिराज पूजन महाव्रतीमुनि अपरिग्रह से ही पहचाने जाते । अन्तर-बाह्य परिग्रह त्यागी ही निज शिवपद पाते ||३|| ९५ ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराजाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । अपरिग्रह के पुष्प अनूठे परमशील गुणदाता । कामबाण के विध्वंसक हैं पद निष्काम प्रदाता ।। महाव्रतीमुनि अपरिग्रह से ही पहचाने जाते । अन्तर-बाह्य परिग्रह त्यागी ही निज शिवपद पाते ||४|| ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराजाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । अपरिग्रह के अनुभवरसमय पावन सुचरु चढाऊँ । पूर्ण निराहारी हो जाऊँ शिवसुख स्रोत सजाऊँ।। महाव्रतीमुनि अपरिग्रह से ही पहचाने जाते । अन्तर- बाह्य परिग्रह त्यागी ही निज शिवपद पाते ||५|| ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराजाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । अपरिग्रह के दीप ज्योतिमय अन्तर मध्य सँजोऊँ । तज मिथ्यात्व एकान्तवाद को सम्यग्ज्ञानी होऊँ ।। महाव्रतीमुनि अपरिग्रह से ही पहचाने जाते । अन्तर-बाह्य परिग्रह त्यागी ही निज शिवपद पाते || ६ || ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराजाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । अपरिग्रह की धूप ध्यानमय आठों कर्मविनाशक । देती है आनंद अतींद्रिय लोकालोक प्रकाशक ।। महाव्रतीमुनि अपरिग्रह से ही पहचाने जाते । अन्तर-बाह्य परिग्रह त्यागी ही निज शिवपद पाते ।।७।। ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराजाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । अपरिग्रह के फल लाऊँ शुद्ध मोक्षफल पाऊँ । क्षय संसारभाव कर सारा शिवसुख हृदय सजाऊँ ।। महाव्रतीमुनि अपरिग्रह से ही पहचाने जाते । अन्तर-बाह्य परिग्रह त्यागी ही निज शिवपद पाते ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतधारकमुनिराजाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । अपरिग्रह के अर्घ्य ज्ञानमय मैं भी नाथ बनाऊँ । पद अनर्घ्य की गरिमा पाऊँ त्रिभुवनपति बन जाऊँ ।।
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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