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________________ ९२ रत्नत्रय विधान दस विराधना शील गुणा करने से भेद चुरासी हजार। दस आलोचना दोष से गुन लो आठ लाख चालीस हजार ।।३।। शुद्धिरूप प्रायश्चित्त दस से गुन लो तो चौरासी लाख । यही शील के उत्तर गुण हैं श्री सर्वज्ञ कथन विख्यात ।।४।। लाख चुरासी उत्तर गुण पाने का सतत प्रयत्न करूँ । सकल महाव्रत सम्यक् पालूँ सर्व दोष सम्पूर्ण हरूँ || ५ || ॐ ह्रीं श्री चौरासी लाखउत्तरगुणसम्पन्न मुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। महार्घ्य ( चान्द्रायण ) काम - भोग भवबंधन कारक हैं प्रभो । कामबाण से पीड़ित हूँ मैं हे विभो ॥ १ ॥ भोग सर्प सम जान भोग सारे तजूँ । उपभोगों की इच्छा तज निज को भजूँ ।। २ ।। पंचेंद्रिय सुख की अभिलाषा त्याग दूँ । कामभाव जागे तो उसमें आग दूँ || ३ || शील स्वभाव भाव में होकर संयमित । इंद्रियसंयम प्राणीसंयम हो अमित ||४|| आत्मब्रह्म में चर्या ही है ब्रह्मचर्य । यही शीलगुण सभी गुणों में श्रेष्ठवर्य ॥ ५ ॥ काम - भोग बंधन विकार से रीत लूँ । आत्मशक्ति से कामभाव सब जीत लूँ ।। ६ ।। परम श्रेष्ठ संयम हो प्रभु उर में अटूट । ब्रह्मचर्य का सतत पिऊँ मैं अमृत घूँट ।।७।। (दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, शील स्वभाव सहेज । निज बल से पाऊँ प्रभो, ब्रह्मचर्य का तेज ।। ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । 47 श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारक मुनिराज पूजन जयमाला (विजात) चली पवन अब स्वशीलवाली तो आओ इसको गले लगाएँ । स्वशील का ही स्वरूप निरखें विभावभावों को दूर भगाएँ ।। १ ।। विमोह विभ्रम का चक्र तोड़ें अशुद्धभावों से मुख को मोड़ें। जो मिलके चारों कषाय आएँ तो हम न इनसे कभी ठगाएँ || २ || अभक्ष्यभक्षण से बचके अब तो अनीति अन्याय नष्ट कर दें। महानचैतन्य भावना को सतत निरंतर सदा जगाएँ || ३ || ये पाँचों पापों की वासनाएँ, ये सप्तव्यसनों की कामनाएँ । अगर ये अपने ही पास आएँ तो भय से बिलकुल न डगमगाएँ । । ४ । । ये राग-द्वेषों के जो महल हैं इन्हें धराशायी करना होगा। विकार गिन-गिनके क्षय करें हम इन्हें रसातल में ही डुबाएँ ।।५।। ९३ नहीं हो एकान्तभाव उर में न कोई अज्ञान हो हृदय में । हो स्वच्छ अंतर हमारा निर्मल स्वज्ञान दीपक ही जगमगाएँ । । ६ । । न कामबन्धन, न भोगबन्धन, के भाव जागें हृदय में स्वामी । हो शीलगुण से स्वयं सुशोभित, बनूँ हे प्रभुजी मैं मोक्षगामी ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूणार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । ( वीर ) ब्रह्मचर्यव्रत की पूजन कर परंब्रह्म का ध्यान हुआ । शीलभाव की महिमा आई रागभाव अवसान हुआ ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूं दिव्य दिगंबरवेश ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् 卐
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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