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________________ रत्नत्रय विधान ब्रह्मचर्यव्रत का धारी ही महाव्रती मुनि होता है। पूर्ण शीलगुण से भूषित हो महाशीलपति होता है ।।३।। ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । ब्रह्मचर्य के पुष्प शीलमय ही कंदर्प दर्प हरते। परम शीलगुण के भंडारी ही आनंद अतुल वरते ।। ब्रह्मचर्यव्रत का धारी ही महाव्रती मुनि होता है। पूर्ण शीलगुण से भूषित हो महाशीलपति होता है।।४।। ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ब्रह्मचर्य के अनुभवशाली सुचरु प्राप्त जो करते हैं। क्षुधारोग की चिर पीड़ा अन्तर्मुहूर्त में हरते हैं।। ब्रह्मचर्यव्रत का धारी ही महाव्रती मुनि होता है। पूर्ण शीलगुण से भूषित हो महाशीलपति होता है ।।५।। ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ब्रह्मचर्य के दीप प्रभामय अन्तर में प्रकाश करते। केवलज्ञानलब्धि पाने को सर्व कुशील त्रास हरते ।। ब्रह्मचर्यव्रत का धारी ही महाव्रती मुनि होता है। पूर्ण शीलगुण से भूषित हो महाशीलपति होता है।।६।। ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ब्रह्मचर्य की धूप ध्यानमय अष्टकर्म क्षय करती है। महाशील के लाख चुरासी उत्तर गण उर धरती है। ब्रह्मचर्यव्रत का धारी ही महाव्रती मुनि होता है। पूर्ण शीलगुण से भूषित हो महाशीलपति होता है।।७।। ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ब्रह्मचर्य रूपी तरुवर ही महामोक्षफल का दाता। जो पा लेता वही जीव ध्रुव सिद्ध स्वपद सादर पाता ।। ब्रह्मचर्यव्रत का धारी ही महाव्रती मुनि होता है। पूर्ण शीलगुण से भूषित हो महाशीलपति होता है।।८।। ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। ब्रह्मचर्य के अर्घ्य भावमय तुम्हें समर्पित हैं जिनदेव । पद अनर्घ्य स्वयमेव प्राप्त होता है बिना श्रम के स्वयमेव ।। श्री ब्रहाचर्यमहाव्रतधारक मुनिराज पूजन ब्रह्मचर्यव्रत का धारी ही महाव्रती मुनि होता है। पूर्ण शीलगुण से भूषित हो महाशीलपति होता है।।९।। ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । अविलि शील संबंधी अष्टादशसहसदोष रहित (वीर) दोष अचेतन स्त्री के त्रय कठोर कोमल स्पर्श चित्र । तीनकरण कृत, कारित, अनुमोदन, दोमन, वच योग सचित्र ।।१।। पाँचों इंद्रिय, भय, आहार, परिग्रह, मैथुन, संज्ञाचार । द्रव्य-भाव, दोसे गुन लो तो सात शतक अरु बीस विकार ।।२।। चेतन स्त्री तीन, करणत्रय, तीन योग अरु पंचेंद्रिय । संज्ञा चार, कषाय सोलह, द्रव्य-भाव दो सब सक्रिय ।।३।। इन्हें गुणाकर जोड़ो तो सतरह सहस्र दो सौ अस्सी। सब मिल दोष शील के अष्टादश सहस्र है दुःखमय ही ।।४।। इन सब दोषों को क्षय करके परम ब्रह्म में रम जाऊँ। शुद्ध शीलगुण प्रकटाने को शुद्धआत्मा ही ध्याऊँ॥५॥ ॐ ह्रीं श्री अष्टादशसहस्रदोषरहितब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। अष्टादश सहस शीलगुण अष्टादश सहस्र शीलगुण भेद जान लो भलीप्रकार। दस लक्षण, प्राणी संयम अरु पंचेंद्रिय संयमसार ।।१।। संज्ञा चार गुप्ति तीन अरु तीन करण सब गुणा करो। अष्टादश सहस्र शीलगुण महासाधु बन ग्रहण करो ।।२।। ॐ ह्रीं श्री अष्टादशसहसदोषरहितब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमनिराजाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। चौरासी लाख उत्तर गुण परमोत्तम पावन उत्तर गुण हैं चौरासी लाख प्रकार। हिंसादिक इक्कीस दोष, व्यतिक्रम आदिक हैं चार विकार ।।१।। पृथ्वी आदिक छह, द्वय, त्रय, चौ, पंचेंद्रिय जुचार, मिल दस। इन्हें गुणा करने से होते आठ सहस्र चार सौ बस ।।२।। 46
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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