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________________ रत्नत्रय विधान १९. श्रीब्रह्मचर्यमहाव्रतधारक मुनिराज पूजन जयमाला (दोहा) व्रत अचौर्य उर धारकर, त्याग करूँ परद्रव्य । आत्मद्रव्य की प्राप्ति का, है मेरा मन्तव्य ।। (ताटक) जो रत्नत्रय धारी होते धारण करते हैं मुनि भेष । वे साता में राग न करते नहीं असाता में है द्वेष ।।१।। अट्ठाईस मूल गुणधारी तेरह विध चारित्र संयुक्त । धर्मध्यान फिर शक्लध्यान में लीन सुमुनि होते भवमुक्त ।।२।। शुक्लध्यान अविकल्पलीन मुनि को होता है कभी न बंध । संवर पूर्वक कर्म निर्जरा कर हो जाते हैं निबंध ।।३।। मरघट हो या महल सभी सम इष्ट अनिष्ट न राग-द्वेष। निज स्वरूप को ही ध्याते हैं ऐसा होता मुनि का वेश ||४|| वन पर्वत उपवन सरिता तट तरु तल में ही करते वास। भव्य दिगंबर नग्न स्वमुद्रा वीतरागता इनके पास ।।५।। आहारादिक समय अयाचक वृत्ति धारते हैं मुनिराज। तन से भी निर्ममत्व होकर सिद्ध किया करते निज काज ।।६।। महाव्रती ये अचौर्यव्रत के धारी इनको सतत् प्रणाम। इनके चरणों की रज निज मस्तक पर धारूँ आठों याम ।।७।। भावलिंग धारी मुनियों की हृदय गूंजती जय जयकार । ऐसा ही मुनिवेष धारकर मैं भी हो जाऊँ भवपार ||८|| मोक्षप्राप्ति के लिए तपस्या का न लोभ करते मुनिराज । वे तो मोक्षस्वरूपी ही हैं परम अनिच्छुक हैं ऋषिराज ।।९।। ॐ ह्रीं श्री अचौर्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय जयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। (वीर) प्रभो अचौर्यमहाव्रत की मैंने पूजन की हर्षित हो। मुनि बन राग-द्वेष सब नायूँ अन्तर मन से पुलकित हो ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् (दोहा) ब्रह्मचर्य निश्चय सहित, श्री अरहंत महान । ब्रह्मचर्य महाव्रत, ही है श्रेष्ठ प्रधान ।।१।। आत्मब्रह्म में रमण ही, करता निज कल्याण । महाशील गुणवान ही, पाते पद निर्वाण ।।२।। ब्रह्मचर्यव्रत श्रेष्ठ की, पूजन करूँ महान । शील स्वभावी सूर्य पा, करूँ आत्मकल्याण ।।३।। ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराज अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराज अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराज अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (वीर) ब्रह्मचर्य जल पाकर प्राणी करता है निज पर उपकार । जन्म जरादिक रोग नाशकर पाता सुख अमरत्व अपार ।। ब्रह्मचर्यव्रत का धारी ही महाव्रती मनि होता है। पूर्ण शीलगुण से भूषित हो महाशीलपति होता है।।१।। ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । ब्रह्मचर्य चंदन की महिमा से जो शोभित होता है। कामवासना से पलभर भी कभी न दुषित होता है ।। ब्रह्मचर्यव्रत का धारी ही महाव्रती मुनि होता है। पूर्ण शीलगुण से भूषित हो महाशीलपति होता है ।।२।। ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा । ब्रह्मचर्य के अक्षत तंदुल हैं अखंड गुण के भंडार । अक्षयपद की प्राप्ति कराते देते हैं आनंद अपार ।।
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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