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________________ १०० श्री पंचसमितिधारक मुनिराज पूजन (दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, पाँचों समिति विचार । सम्यक मुनि बनकर प्रभो, करूँ आत्मउद्धार ।।५।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीपंचसमितिधारकमुनिराजाय महायँ निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला रत्नत्रय विधान संयम के पुष्प सजाऊँ । दुःख कामबाण विनशाऊँ ।। प्रभु पंचसमिति उर धारूँ । रागादिक दोष निवारूँ ।।४।। ॐ ह्रीं श्री पंचसमितिधारकमुनिराजाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । संयम के सुचरु चढ़ाऊँ। प्रभु क्षुधारोग विनशाऊँ।। प्रभु पंचसमिति उर धारूँ । रागादिक दोष निवारूँ ।।५।। ॐ ह्रीं श्री पंचसमितिधारकमुनिराजाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । संयम के दीप जलाऊँ। मिथ्यात्व मोह विनशाऊँ।। प्रभु पंचसमिति उर धारूँ । रागादिक दोष निवारूँ ।।६।। ॐ ह्रीं श्री पंचसमितिधारकमुनिराजाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। संयम की धूप बनाऊँ। वसुकर्मों पर जय पाऊँ।। प्रभु पंचसमिति उर धारूँ । रागादिक दोष निवारूँ ।।७।। ॐ ह्रीं श्री पंचसमितिधारकमुनिराजाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। संयम के सुतरु उगाऊँ। फल मोक्ष सदा को पाऊँ ।। प्रभु पंचसमिति उर धारूँ । रागादिक दोष निवारूँ ।।८।। ॐ ह्रीं श्री पंचसमितिधारकमुनिराजाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । संयम का अर्घ्य बनाऊँ । पद श्रेष्ठ अनर्घ्य सु पाऊँ ।। प्रभु पंचसमिति उर धारूँ। रागादिक दोष निवारूँ।।९।। ॐ ह्रीं श्री पंचसमितिधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । (मानव) रागों का दोष नहीं है है मात्र दोष चेतन का। रागों से ही चिपका है है होश न अपने तन का ॥१॥ भवभावों मे ही रहकर करता है सदा अहित निज।। चारों गतियों में बहता जीवंतशक्ति भूला निज ।।२।। संसार महादुःखसागर यह कब तक पार करेगा। अन्याय अनीति आदि की दुर्गति कब क्षार करेगा ।।३।। संयम कब जागृत होगा कब तक पार करेगा। अविरति प्रमाद की छाया को कब तक नाश करेगा ।।४।। कब तक मोहादि विजयकर निज का श्रद्धान करेगा। कब अप्रमत्त होकर यह निज में ही वास करेगा ।।५।। चारों कषाय जयकर कब थल मोह क्षीण पाएगा। कब प्रभु सर्वज्ञ स्वपद पा कैवल्यप्रकाश करेगा ।।६।। कब सिद्धपुरी जाएगा कब सिद्ध स्वपद पाएगा। आनंद अतींद्रिय सागर कब उर में प्रगटाएगा ।।७।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामयीपंचसमितिधारकमुनिराजाय जयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। (वीर) पंचसमिति की पूजन करके जागा है उर में उल्लास । यत्नाचार पूर्वक पावू जागे उर में द्रढ़ विश्वास ।।१।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश। निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगम्बरवेश ।।२।। पुष्पांजलिं क्षिपेत् महाऱ्या (ताटंक) समिति प्रमादरहित होती है मुनि के मन को भाती है। यत्नाचार सहित प्रवृत्ति ही सम्यक् समिति कहाती है।।१।। आत्मा के प्रति सम्यक् परिणति हो वह उत्तम समिति महान । निज परमात्मतत्त्व में हो लीनता वही है श्रेष्ठ प्रधान ।।२।। किसी जीव को रंच न पीड़ा पहुँचे वही समिति उत्तम । दया स्वयं ही पल जाती है धर्म अहिंसा में सक्षम ।।३।। गमनादिक में प्रमादरूप होती प्रवृत्ति नहीं अणुभर । मुनि रागादिविभाव त्याग रहते स्वध्यान में ही तत्पर ।।४ ।। 51
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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