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________________ श्री सत्यमहाव्रतधारक मनिराज पूजन रत्नत्रय विधान स्वसत्य निर्णय किए बिना प्रभु कभी भी समकित न पा सकेंगे। अगर न होगा स्वसत्यव्रत तो कभी भी शिवपुर न जा सकेंगे ।।९।। ॐ हीं श्री सत्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। महाऱ्या (मानव) जीवत्वशक्ति का स्वामी क्यों करता भावमरण यह। बंधन करता कर्मों का करता क्यों द्रव्य मरण यह ।।१।। यदि क्रूर मोह को जीते तो मिथ्यादर्शन क्षय हो। दृढ़ भेदज्ञान करके यह समकित पाकर निर्भय हो ।।२।। अविरति को जय कर ले तो संयम का रथ भी पाए। यदि शुक्लध्यान ध्याए तो यह यथाख्यात भी लाए।।३।। घातिया नष्ट करने को यह मोह नाश कर देगा। सर्वज्ञ स्वपद प्रकटाकर कैवल्यज्ञान उर लेगा ।।४।। योगों को क्षय करते ही ध्रुव सिद्ध स्वपद पाएगा। फिर सादि अनंत काल तक परिपूर्ण सौख्य लाएगा ।।५।। (दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, सत्यधर्म को आज । ज्ञायक सत्यस्वरूप को, सतत् झुकाऊँ माथ ।।६।। ॐ ह्रीं श्री सत्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (समान सवैया ) परम सत्य को धर्म न माना रहा सत्य का घातक बन मैं। असत्य को ही अपनाया है प्रभु असत्य आराधक बन मैं ।।१।। सत्यमहाव्रत पालन करके ही शिवसुख पाता प्राणी। त्रिलोकाग्र पर जाकर ही आनंद अतींद्रिय पाता प्राणी ।।२।। अपने भीतर दर्शनज्ञान भरा है उसे न मैंने जाना। जो भीतर में परम सत्य है उसे न मैंने अपना माना ॥३॥ इसीलिए तो भव अटवी में भटक-भटक दुःख पाए नाना। घोरदुःखों का कारण इसको मैंने कभी नहीं पहिचाना ।।४।। स्वानुभूति का दर्शन मैंने कभी नहीं पाया हे स्वामी। परद्रव्यों में महामूर्छित व्यथित रहा हे अन्तर्यामी ।।५।। मैं ज्ञायक हूँ मैं ज्ञायक हूँ ऐसा चिन्तन किया न प्रतिपल । अपने निज ज्ञायक स्वभाव बिन कैसे होता उत्तम निर्मल ।।६।। पश्चात्ताप दोष का होता तो पवित्रता आ ही जाती। अपनी निर्मल शुद्धआत्मा फिर चेतन मन को हर्षाती ।।७।। अगर राग में दुःख न लगेगा तो सुख होगा कभी नहीं विभु । अगर ज्ञान में सुख भासित हो तो फिर होगा दुःख न कभी प्रभु ।।८।। पर में यदि निज बुद्धि रुकी है तो फिर दुःख का अंत नहीं है। निज में यदि निज बुद्धि है तो फिर सुख का अंत नहीं है ।।९।। लौकिकभक्ति ज्ञान घातक है भव परिभ्रमण मूल दुखरूपी। तथा अलौकिकभक्ति सदा ही शाश्वत निर्मल ध्रुव सुखरूपी ।।१०।। सर्वोत्कृष्ट सत्य रस प्रेमी शुद्धदृष्टि सम्यग्दृष्टि है। सौम्यमूर्ति है लगनशील है जागरूक निज पर सुदृष्टि है।।११।। दर्शन ज्ञानादिक लक्षण से सम्यग्दृष्टि सदा भूषित है। अपलक्षण से मिथ्यादृष्टि प्राणी ही सदैव दूषित है।।१२।। सत्यधर्म का अवलंबन ले जो भी शिवपथ पर आएगा। महा सत्यव्रतधारी बनकर महामोक्षसुख ही पाएगा ।।१३।। ॐ ह्रीं श्री सत्यमहाव्रतधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा । (वीर) परम सत्यव्रत की पूजन की मैंने भावपूर्वक नाथ । सत्यमहाव्रतधारी बनकर हो जाऊँ मैं प्रभो स्वनाथ ।। रत्नत्रयमंडल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चयपूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् 43
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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