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रत्नत्रय विधान
शुद्धोपयोग अतिपावन उर को पवित्र उपयोग अशुद्ध अगर है तो उसको क्षय मुनि परम अहिंसक होते षट्कायिक रक्षा हो अप्रमत्त निजभावों की सतत् सुरक्षा करते ||३|| (दोहा)
करता है। करता है || २ ||
करते ।
महाअर्घ्य अर्पण करूँ, तज दूँ हिंसाभाव । शुद्ध आत्मपुरुषार्थ से, पाऊँ आत्मस्वभाव ।।
ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसाधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला ( ताटंक )
महिमामयी अहिंसा का तो पालन महाव्रती करते।
नहीं किसी का हृदय दुखाते हिंसा से सदैव डरते । । १ । । समकित की निधि को पाते ही प्रथम जान लेता चेतन । मैं तो ज्ञाता-दृष्टा ही हूँ मुझ में नहीं राग का कण । । २ । । कोई भी पर वस्तु न मेरी यह निर्मल प्रतीति होती । उर में केवल अपने ज्ञायक से ही पूर्ण प्रीति होती || ३ || भेद - ज्ञान का स्वामी हूँ मैं स्वपर विवेक बुद्धि सम्राट । दर्शनज्ञानमयी चेतन हूँ गुण अनंत लख हुआ विराट || ४ || निरुपसर्ग हूँ मैं निसंग हूँ अविकारी अविनाशी हूँ । मैं ज्ञातृत्वशक्ति से शोभित युगपत स्वपर प्रकाशी हूँ ॥ ५ ॥ सल्लेखना परम हितकारी परम अहिंसा धारूँगा । मोह रागद्वेषादि सभी भवराग पूर्ण निरवारूँगा || ६ || पंचमभाव आश्रय लेकर पंचाचारी होऊँगा । पंचमगति पाऊँगा हे प्रभु अष्टकर्मरज धोऊँगा ।।७।। निर्विकल्प अनुभव के बल से ध्रुव अखंडपद पाऊँगा । परम पारिणामिकस्वभाव से अब तो शिवपुर जाऊँगा ।। ८ ।। ज्ञानस्वभावी ज्ञानोदधि हूँ ज्ञानशरीरी हूँ स्वामी । परम अहिंसाधर्म स्वयं प्रगटाऊँगा अन्तर्यामी || ९ || ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसाधर्मधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री अहिंसाव्रतधारक पूजन
(वीर )
पंचमहाव्रत की पूजनकर व्रतधारण का जागा भाव । आप कृपा से नाश करूँ मैं पाँचों प्रत्यय के परभाव ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूं दिव्य दिगंबरवेश ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् 新
है मित्र हमारा सम्यक्चारित्र परम बलवान । निज परिणति मेरी रानी अति सुन्दर शोभावान ।। परपरिणति कुलटादासी ने मुझे किया हैरान ।
अपने स्वरूप को भूला मैं पर में आपा मान ।। उपयोग चैतन्यलक्षण चैतन्यभावमय प्राण । माता मेरी जिनवाणी हैं पिता वीर भगवान ||
आज समुति की बातें सुन लिया स्वयं को जान । तत्त्वों के सम्यक् निर्णय से हुआ भेदविज्ञान ।। मैं ज्ञाता - दृष्टा चेतन परिपूर्ण ध्रौव्य विभुवान । स्वामी अनंतगुण का हूँ सिद्धत्व निराली शान ।। तीर्थंकर का लघुनंदन जिनवर की हूँ संतान । माता मेरी जिनवाणी हैं पिता वीर भगवान ।। चैतन्यपुंज अविनाशी टंकोत्कीर्ण गुणवान । मैं सिद्धपुरी का वासी त्रिभुवनपति महामहान ।। समता का सागर मेरे उर में बहता रसवान । चैतन्यधातु से निर्मित आतम का करता ध्यान ।। पावन रत्नत्रय लेकर शिवपथ पर किया प्रयाण । माता मेरी जिनवाणी हैं पिता वीर भगवान ।।