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________________ रत्नत्रय विधान सद्धर्मतत्त्व धवलोज्जवल अक्षत प्रभु उर में लाऊँ। अक्षयपद प्राप्त करूँ मैं आनंद अतीन्द्रिय पाऊँ।। व्रत धर्म अहिंसा पालूँ प्रभु महाव्रती बन जाऊँ। षटकायिक रक्षा के हित प्राणीसंयम उर लाऊँ।।३।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामहाव्रतधारकमुनिराजाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षता निर्वपामीति स्वाहा। सद्धर्मतत्त्व पुष्पांजलि से अपना हृदय सजाऊँ। दुष्कामव्यथा को हरकर गुण परमशील प्रकटाऊँ ।। व्रत धर्म अहिंसा पालूँ प्रभ महाव्रती बन जाऊँ। षटकायिक रक्षा के हित प्राणीसंयम उर लाऊँ।।४।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामहाव्रतधारकमुनिराजाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीतिस्वाहा। सद्धर्मतत्त्व के उत्तम अनुभव रसमय चरु लाऊँ। चिरक्षुधारोग को हरकर आनंद अतीन्द्रिय पाऊँ ।। व्रत धर्म अहिंसा पालूँ प्रभु महाव्रती बन जाऊँ। षट्कायिक रक्षा के हित प्राणीसंयम उर लाऊँ ।।५।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामहाव्रतधारकमुनिराजाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीतिस्वाहा। सद्धर्मतत्त्व दीपावलि ज्योतिर्मय जगमग लाऊँ। अज्ञानतिमिरभ्रम क्षयकर आनंद अतीन्द्रिय पाऊँ।। व्रत धर्म अहिंसा पानू प्रभु महाव्रती बन जाऊँ। षट्कायिक रक्षा के हित प्राणीसंयम उर लाऊँ ।।६।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामहाव्रतधारकमुनिराजाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। सद्धर्मतत्त्व की पावन निज ध्यानधूप उर लाऊँ। आठों कर्मों को जयकर पद नित्य निरंजन पाऊँ ।। व्रत धर्म अहिंसा पालूँ प्रभ महाव्रती बन जाऊँ। षट्कायिक रक्षा के हित प्राणीसंयम उर लाऊँ ।।७।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामहाव्रतधारकमुनिराजाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वामीति स्वाहा। सद्धर्मतत्त्व नन्दनवन जा ज्ञानवृक्ष उपजाऊँ। ध्रुव महामोक्षफल पाकर आनंद अतीन्द्रिय पाऊँ ।। व्रत धर्म अहिंसा पालूँ प्रभ महाव्रती बन जाऊँ। षट्कायिक रक्षा के हित प्राणीसंयम उर लाऊँ ।।८।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामहाव्रतधारकमुनिराजाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। श्री अहिंसाव्रतधारक पूजन सद्धर्मतत्त्व अर्ध्यावलि हे स्वामी चरण चढ़ाऊँ। पदवी अनर्घ्य निज पाकर आनंद अतीन्द्रिय पाऊँ ।। व्रत धर्म अहिंसा पालूँ प्रभु महाव्रती बन जाऊँ। षट्कायिक रक्षा के हित प्राणीसंयम उर लाऊँ ।।९।। ॐ ह्रीं श्री परमअहिंसामहाव्रतधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। अविलि (मानव) मैं परम अहिंसक होऊँ पंचमगति का सुख जोऊँ। संकल्प-विकल्प विनायूँ निज आत्मस्वरूप प्रकायूँ ।। (सखी) रागादिकभाव अभावी। बन परम अहिंसाभावी ।। संकल्पीहिंसा त्यागें। हिंसककृत्यों से भाD ।।१।। ॐ ह्रीं श्री संकल्पीहिंसारहितअहिंसाधर्मधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। हिंसा के भाव विनायूँ। करुणा के भाव प्रकारों ।। उद्योगीहिंसा दुःखमय। है कुगतिप्रदाता भवमय ।।२।। ॐ ह्रीं श्री उद्योगीहिंसारहितअहिंसाधर्मधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। सब जीवों की रक्षा कर । निज परम अहिंसा उर धर ।। आरम्भीहिंसा को तज। निज धर्म अहिंसा लूँ भज।।३।। ॐ ह्रीं श्री आरम्भीहिंसारहितअहिंसाधर्मधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। रागादिक हिंसा त्यागें। अपने स्वभाव में लागू।। मैं तनँ विरोधीहिंसा। भाए निज परम अहिंसा ।।४।। ॐ ह्रीं श्री विरोधीहिंसारहितअहिंसाधर्मधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। महाऱ्या (मानव) रागादिक का होना ही हिंसा है महान दुःखतम । आत्मा के भीतर रहना ही धर्म अहिंसा अनुपम ।।१।। 40
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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