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________________ रत्नत्रय विधान श्री सम्यग्ज्ञान पूजन ६. विनयाचार विनयपूर्वक ज्ञानाराधन करना षष्टम विनयाचार । अष्ट अंगयुत सम्यग्ज्ञान बनाता जीवों का अविकार ।। ॐ ह्रीं श्री विनयाचारअंगयुतसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्बपामीति स्वाहा। ७. अनिन्हवाचार गुरु का नाम न कभी छिपाना यह सप्तम अनिन्द्वावाचार। अष्ट अंगयुत सम्यग्ज्ञान बनाता जीवों का अविकार ।। ॐ ह्रीं श्री अर्थाचारअंगयुतसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। ८. बहुमानाचार बह आदर से जिनश्रुत पढ़ना यह अष्टम बहमानाचार। अष्ट अंगयुत सम्यग्ज्ञान बनाता जीवों का अविकार ।। ॐ ह्रीं श्री बहुमानाचारअंगयुतसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। महाऱ्या (वीर) जीवादिक तत्त्वों का ज्ञान यथार्थ प्रयोजनभूत प्रधान । संशय विभ्रम विमोह विरहित स्वपर ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान ।।१।। मतिश्रुत ज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं होते कभी नहीं प्रत्यक्ष । अवधि मनःपर्यय अरु केवलज्ञान सदा ही हैं प्रत्यक्ष ।।२।। नय प्रमाण निक्षेप आदि का ज्ञान शुद्ध आवश्यक है। स्याद्वादयुत अनेकान्त का ज्ञान परम आवश्यक है ।।३।। मैं भी प्रभु स्वज्ञान के बल से प्रगटाऊँगा केवलज्ञान । केवलज्ञान प्रकट कर हे प्रभु पाऊँगा निज पद निर्वाण ।।४।। निश्चय से तो शुद्ध आत्मा का ही ज्ञान परम बलवान। सारभूत कैवल्यज्ञान का स्रोत यही है महिमावान ।।५।। पाँचों ज्ञानों में सर्वोत्तम बहुमहिमामय केवलज्ञान । एक समय में युगपत लोकालोक जानता है यह ज्ञान ।।६।। ॐ ह्रीं श्री मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानसमन्वितसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (मानव) आगम से ज्ञान प्राप्तकर जो ज्ञानशील होते हैं। वे धैर्यपूर्वक शिवतरु के शुद्ध बीज बोते हैं।।१।। वे पहले भूमि शुद्धि हित मिथ्यात्व नष्ट करते हैं। रागादि मोहभाव को तज द्रव्यदृष्टि करते हैं।।२।। फिर भेद-ज्ञान के बल से बनते हैं स्वपर विवेकी। सम्यग्दर्शन पाने पर होते न कभी अविवेकी ।।३।। उर सम्यग्ज्ञान प्राप्तकर चारित्र शुद्ध पाते हैं। संयम के पावन रथ को दृढतापूर्वक लाते हैं।।४।। आरूढ उसी पर होते ही शिवपथ पर चलते हैं। मुनि अप्रमत्त बनते ही फल यथाख्यात फलते हैं।।५।। करते हैं मोह क्षीण वे घातिया चार हर लेते। सर्वज्ञ स्वपद प्रकटाकर अरहंत दशा वर लेते।।६।। फिर योगों को भी तजते क्षयकर अघातिया तत्क्षण। ध्रुव सिद्धस्वपद पाते निज हरते कर्मों के बंधन ।।७।। फिर सादि अनंत कालों तक वे निजानंदरस पीते। जीवत्वशक्ति के बल से तो वे सदैव ही जीते।।८।। अक्षय अनंत शिवसुख के वे ही स्वामी होते हैं। पाँचों प्रत्यय सब क्षयकर अन्तर्यामी होते हैं।।९।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तयेजयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। (वीर) सम्यग्ज्ञानरत्न की पूजा करके पाऊँ सम्यग्ज्ञान । केवलज्ञानसूर्य पाऊँगा पाऊँगा निज पद निर्वाण ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश। निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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