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________________ १४. श्री सम्यक्चारित्र पूजन स्थापना (वीर) पंचमहाव्रत, पंचसमिति, त्रयगुप्ति, सहित सम्यक्चारित्र । इसके पालन करने वाले हो जाते हैं परम पवित्र ।। पूर्ण देशसंयम धारण का फल पाऊँ मैं श्री जिनेश । इसीलिए पूजन करता हूँ मैं भी हो जाऊँ परमेश ।। ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (मानव) सम्यकचारित्र स्वबल से जन्मादिकरोग नशाऊँ। महिमामय संयमधारी हे प्रभु मैं भी हो जाऊँ।। सम्यक्चारित्र त्रयोदशविध अंतरंग में लाऊँ। निश्चयपूर्वक विकसितकर प्रभु मुक्तिसौख्य मैं पाऊँ।।१।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक्चारित्र स्वचंदन निज को शीतल करता है। संसारतापज्वर हरकर आनंद स्वघट भरता है।। सम्यकचारित्र त्रयोदशविध अंतरंग में लाऊँ। निश्चयपूर्वक विकसितकर प्रभु मुक्तिसौख्य मैं पाऊँ।।२।। ॐ ह्रीं श्री सम्यकचारित्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक्चारित्र स्वअक्षत अक्षयपद का दाता है। अनुपम अनंत गुणदायक ये त्रिभुवन विख्याता है।। सम्यक्चारित्र त्रयोदशविध अंतरंग में लाऊँ। निश्चयपूर्वक विकसितकर प्रभु मुक्तिसौख्य मैं पाऊँ ।।३।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्रायअक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। श्रीसम्यकचारित्र पूजन सम्यक्चारित्र पुष्प से सुरभित पराग लाऊँगा। चिर कामबाण पीड़ा हर गुण महाशील पाऊँगा।। सम्यकचारित्र त्रयोदशविध अंतरंग में लाऊँ। निश्चयपूर्वक विकसितकर प्रभु मुक्तिसौख्य मैं पाऊँ।।४।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यकचारित्र स्वरसमय अनुभवचरु ही सुखदायी। चिर क्षुधारोग विध्वंसक निज निराहार पददायी।। सम्यकचारित्र त्रयोदशविध अंतरंग में लाऊँ। निश्चयपूर्वक विकसितकर प्रभु मक्तिसौख्य मैं पाऊँ।।५।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यकचारित्र दीप की दिव्याभा उर में छायी। मिथ्यात्वतिमिर को क्षयकर शिवसुख की बेला आयी।। सम्यक्चारित्र त्रयोदशविध अंतरंग में लाऊँ। निश्चयपूर्वक विकसितकर प्रभु मुक्तिसौख्य मैं पाऊँ।।६।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक्चारित्र धूप ला मैं निज का ध्यान लगाऊँ। वसकर्म नष्ट करके प्रभु आनंद अतीन्द्रिय पाऊँ।। सम्यक्चारित्र त्रयोदशविध अंतरंग में लाऊँ। निश्चयपूर्वक विकसितकर प्रभु मुक्तिसौख्य मैं पाऊँ।।७।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यकचारित्र स्वफल ही है महामोक्षफल दाता। जो भी ये पा लेता है परमात्म परमपद पाता।। सम्यक्चारित्र त्रयोदशविध अंतरंग में लाऊँ। निश्चयपूर्वक विकसितकर प्रभु मुक्तिसौख्य मैं पाऊँ।।८।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय महामोक्षफलप्राप्तये निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक्चारित्र अर्घ्य ही है पद अनर्घ्य का दाता। जो भी संचित करता है ध्रुव सिद्ध स्वपद है पाता।। सम्यकचारित्र त्रयोदशविध अंतरंग में लाऊँ। निश्चयपूर्वक विकसितकर प्रभु मुक्तिसौख्य मैं पाऊँ॥९॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 34
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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