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________________ रत्नत्रय विधान श्री सम्यग्ज्ञान पूजन उपासकाध्यनांग सातवाँ श्रावक का आचरण चरण। अन्तःकृतदशांग आठवाँ अन्तःकृतकेवली कथन ।।४।। नवमा अनुत्तरांग तीर्थ प्रति गये अनुत्तर जो मुनिवर। दशमप्रश्न व्याकरण अंग में कथन व्याकरण प्रश्नोत्तर ।।५।। हैं विपाक सूत्रांग ग्यारहवाँ पुण्य-पाप फल का वर्णन। दृष्टिवाद बारहवाँ मिथ्यातम नाशक सम्यग्दर्शन ।।६।। इन द्वादश अंगों के पद हैं इकशत द्वादश कोटि तथा। लाख तिरासी सहस्र अठावन और पाँच सुन हरो व्यथा ।।७।। ॐ ह्रीं श्री द्वादशांगश्रुतज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। परिकर्मआदि सम्बन्धी अर्घ्य (वीर) दृष्टिवाद के भेद पाँच हैं पहला है परिकर्म महान । दूजा सूत्र तृतीय अनुयोग चतुर्थम भेद पूर्वगत जान ।।१।। पंचम भेद चूलिका जानो धन्य-धन्य श्रुत-ज्ञान प्रधान। चौदह भेद पूर्वगत के हैं और भेद भी अन्य महान ।।२।। दृष्टिवाद के पाँचों भेदों की संख्या भी लो सब जान । एक अरब वसुकोटि साठ हैं लाख सहस्र सु बीस प्रमाण ।।३।। जिन आगम का स्वाध्याय कर भेदज्ञान प्रकटाऊँगा। शुद्ध अतीन्द्रिय आनन्द रस पी, मिथ्या तिमिर नशाऊँगा ।।४।। ॐ ह्रीं श्री परिकर्मादिपंचभेदगर्भितश्रुतज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। चार अनुयोग (मत्तसवैया ) प्रथमानुयोग का ज्ञान करूँ शुभ-अशुभभाव फल को जानें। करणानुयोग का ज्ञान करूँ दुखदायी कर्मप्रकृति मानूँ ।।१।। चरणानुयोग से सदाचार सीखू चारित्र शक्ति पाऊँ। द्रव्यानुयोग से स्वपर ज्ञान पाऊँ शुद्धात्मा निज ध्याऊँ ।।२।। चारों ही अनुयोग पर्दै इनकी कथनी सम्यक् मानूँ। सर्वोत्तम जिनधर्म योग पा निज आत्मा को पहिचानें ।।३।। ॐ ह्रीं श्री प्रथमानुयोगकरणानुयोगचरणानुयोगद्रव्यानुयोगसमन्वितसम्यग्ज्ञानाय अनर्थ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। अष्ट अंग अावलि (वीर) व्यंजन, अर्थ उभेय, अरु काल उपधानाचार अरु विनयाचार । तथा अनिन्हव सप्तम जानो अष्टम है बहुमानाचार ।।१।। पहला व्यंजन द्वितीय अर्थ है तृतीय उभय और चौथा है काल। है उपधान पाँचवाँ, षष्टम विनय, सातवाँ, अनिन्हव पाल ।।२।। है अष्टम बहमान यही है अंग ज्ञान के श्रेष्ठ महान। आत्मतत्त्व की दृढ़ प्रतीति पूर्वक होता है सम्यग्ज्ञान ।।३।। ॐ ह्रीं श्री अष्टांगयुतसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। १. व्यंजनाचार मात्र शब्द का पाठ जानना प्रथम अंग व्यंजन आचार। अष्ट अंगयुत सम्यग्ज्ञान बनाता जीवों को अविकार ।। ॐ ह्रीं श्री व्यंजनाचार अंगयुतसमयुतसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। २. अर्थाचार अर्थ मात्र संपूर्ण जानना द्वितीय अंग है अर्थाचार । अष्ट अंगयुत सम्यग्ज्ञान बनाता जीवों का अविकार ।। ॐ ह्रीं श्री अर्थाचारअंगयुतसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। ३. उभयाचार शब्द अर्थ दोनों का सच्चा ज्ञान तीसरा उभयाचार । अष्ट अंगयुत सम्यग्ज्ञान बनाता जीवों का अविकार ।। ॐ ह्रीं श्री उभयाचारअंगयुतसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। ४. कालाचार योग्य काल में शास्त्र पठन पाठन है चौथा कालाचार । अष्ट अंगयुत सम्यग्ज्ञान बनाता जीवों का अविकार ।। ॐ ह्रीं श्री कालाचारअंगयुतसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। ५. उपधानाचार प्राप्त ज्ञान को नहीं भूलना यह पंचम उपधानाचार। अष्ट अंगयुत सम्यग्ज्ञान बनाता जीवों का अविकार ।। ॐ ह्रीं श्री उपधानाचारअंगयुतसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा । 32
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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