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________________ रत्नत्रय विधान श्री सम्यग्ज्ञान पूजन सम्यग्ज्ञान स्वरूप प्रकटकर आत्मज्ञ हो जाऊँ। केवलज्ञान महान प्राप्तकर भवसागर तर जाऊँ।।९।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। ॐ श्री सम्यग्ज्ञान अविलिम (जोगीरासा) मतिश्रुत अवधि मनःपर्यय अरु केवलज्ञान दशाएँ। मात्र ज्ञानगुण की होती हैं ये पाँचों पर्यायें।। इनमें केवलज्ञान प्रकट करने का उद्यम करिए। चार कषायें चार घातिया पुण्य-पाप सब हरिए ।। ॐ ह्रीं श्री मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानसमन्वितसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। १. मतिज्ञान (वीर) इन्द्रियमन की सहायता से उत्पन्नित होता मतिज्ञान । समकित केबिन कुमति कहाता समकित युत हैसुमति सुजान॥१॥ यही अवग्रह, ईहा और अवाय, धारणा चार प्रकार। सबका ही मैं ज्ञान करूँ प्रभु हो जाऊँ निर्मल अविकार ।।२।। मतिज्ञान के तीन शतक छत्तीस भेद लूँ पूरे जान । केवल निज शुद्धात्मा को ही जानूँ पाऊँ सम्यग्ज्ञान ।।३।। ॐ ह्रीं श्री मतिज्ञानसमन्वितसम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । २. श्रुतज्ञान मति से जानी हुई वस्तु का ज्ञान विशेष वही श्रुतज्ञान । समकित के बिन कुश्रुत कहाता समकित युत है तो श्रुतज्ञान ।।१।। अंग बाहा अरु अंग प्रविष्ट भेद दो धारी है श्रुतज्ञान। इन दोनों का ज्ञान करूँ मैं संग करूँ द्रव्य श्रुतज्ञान ।।२।। प्रथम भावश्रुत ज्ञान करूँ प्राप्त करने सम्यक्श्रुतज्ञान । बारह अंग पूर्व चौदह का ज्ञान करूँ प्रभु शुद्ध महान ।।३।। ॐ ह्रीं श्री श्रुतज्ञानसमन्वितसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। ३. अवधिज्ञान क्षेत्र काल मर्यादा को जो ग्रहण करे वह अवधिज्ञान । समक्ति बिना कुअवधि कहाता समकित युत सुअवधि प्रधान ।।१।। भवप्रत्यय, गुणप्रत्यय, दोनों भेद इसी के लो पहचान।। देशावधि, परमावधि, सर्वावधि तीनों लो सम्यक्जान ।।२।। छह प्रकार अननुगामी, अनुगामी वर्धमान हीयमान । तथा अवस्थित अनवस्थित छह पाऊँ स्वामी सम्यग्ज्ञान ।।३।। ॐ ह्रीं श्री अवधिज्ञानसमन्वितसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। ४. मनःपर्ययज्ञान जीवों के मनगत पदार्थ जो जाने वह मनःपर्ययज्ञान । समकित के बिना असंभव है यह रूपी का ही करता ज्ञान ।।१।। सभी गणधरों को होता है अरु उनको जो सुऋषि महान । ऋजुमति पहिला भेद दूसरा श्रेष्ठ विपुलपति उत्तम ज्ञान ।।२।। ॐ ह्रीं श्री मनःपर्ययज्ञानसमन्वितसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । ५. केवलज्ञान सकल विश्व को युगपत जाने वह होता है केवलज्ञान । सर्व द्रव्य गुण पर्यायों को एक समय में होता जान ।।१।। लोकालोक जानने वाला यह क्षायिक ही होता ज्ञान । इसके बिना नहीं होता है कोई प्राणी सिद्ध महान ।।२।। इसके होते ही होती है नव केवलब्धियाँ प्रधान । पाँचों ज्ञानों में सर्वोत्तम बहमहिमामय केवलज्ञान ।।३।। ॐ ह्रीं श्री केवलज्ञानसमन्वितसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। द्वादशांग पहला आचारांग आचरण मुनियों का जिसमें वर्णन । दूजा सूत्रकृतांग है जिसमें शुद्धज्ञान का पूर्ण कथन ।।१।। तीजा स्थानांग भूमि पर देख शोध के धरो चरण। चौथा समवायांग क्षेत्र आदिक भावों का दिव्यकथन ।।२।। व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग पाँचवा प्रश्नोत्तर विज्ञान सघन । षष्टम ज्ञातृधर्म कथांग सुधर्म कथाओं का वर्णन ।।३।। 31
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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