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रत्नत्रय विधान
श्री उपगूहन अंग पूजन
परदोष न कहने का ही कर्त्तव्य समकिती जन का।
समकित की ऊर्जा पाना फल उत्तम उपगूहन का ।।९।। ॐ ह्रीं श्री उपगूहनांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
महाऱ्या
(दिग्वधू) रागादि भावहिंसा भवदुःख का मूल जानो। शुभभाव भी अगर है तो उसको भल मानो ।।१।। मिथ्यात्व परिग्रह ही सबसे बड़ा परिग्रह । चौबीस परिग्रह तज व्रत धारो अपरिग्रह ।।२।। वस्तुस्वरूप जैसा वैसा ही सदा मानो। परभाव ग्रहण करना चोरी का पाप जानो ।।३।। विपरीत मान्यता को तो तुम असत्य जानो। परभावों में विचरण है तो कुशील मानो।।४।। ये पंचपाप तज दो तो शुद्धमहाव्रत हो। संसार नाश होकर ध्रुव मोक्षमहापद हो ।।५।। उपगूहन अंग सहित सम्यक्त्व पाऊँ नामी।
निज आत्मप्रशंसा तज निज को ही ध्याऊँ स्वामी।।६।। ॐ ह्रीं श्री उपगूहनांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
(ताटक) प्रभु उपगूहन अंग धारकर सम्यग्दर्शन सुदृढ़ करूँ। गुणीजनों की करूँ प्रशंसा निन्दादिक के भाव हरूँ ।।१।। परनिन्दा का भाव न हो प्रभु आत्मप्रशंसा दोष न हो। पर के दोष भी ना बोलूँ तो उनसे आगे दोष न हो।।२।। श्रावकजन से दोष अगर हो तो मैं उनको समझाऊँ। किन्तु न उनके दोष प्रकटकर अल्प पाप भी उपजाऊँ ।।३।। मुनि से अगर दोष हो जाए तो मैं ना कहूँ भलीप्रकार। मुनियों की निन्दा न हो सके ऐसा करूँ सदैव विचार ।।४।। दोषीजन के दोषों का मैं करूँन स्वामी कभी प्रचार । उनके गुण का वर्णन ही है उनके दोषों का परिहार ।।५।।
आत्मधर्म जिनधर्म वृद्धि का ही मैं स्वामी करूँ उपाय। क्षमा मार्दव संतोषादिक शुद्धभावना हो सुखदाय ।।६।। उर उपवृंहण अंग हो सम्यक् गुणीजनों का हो सम्मान । सतत निरंतर शुद्धभाव का ही हो अंतर में बहुमान ।।७।। आत्मधर्म की वृद्धि हेतु प्रभुतज दूँसब संकल्प विकल्प। निजगुण की बढ़वारी करके हो जाऊँ स्वामी अविकल्प ।।८।। धर्माभास नहीं हो हे प्रभु गुरु आभास नहीं हो रंच ।
नहीं देवआभास हृदय हो करूँ न ऐसे कभी प्रपंच ।।९।। ॐ ह्रीं श्री उपगूहनांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
(वीर) उपगहन अंग पूजकर करूँ स्वयं का प्रभु कल्याण। सम्यग्दर्शन की महिमा से पाऊँगा ध्रुव पद निर्वाण ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ।।
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्
छोटे-छोटे मुनिवर हो गये निहाल । निजपरिणति का देखो तो कमाल ।।
आठ वर्ष में ही दीक्षा धार ली विशाल । नवें वर्ष पाया ज्ञान तत्काल । निज.... पंच महाव्रत धारे अणुव्रत धार। संयम के रथ पर हो गये सवार ।। सम्यक्त्वाचरण पाया आ गया स्वकाल । निज... चार घातिया विनाश हुए सर्वज्ञ । अपने में रहकर हुए आत्मज्ञ ।। अघातिया विनाश बने त्रिभुवन भाल । निज...
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